Sunday, June 28, 2015

योग पर राजनीति के नुकसान

लोकतंत्र और सूचना प्रौद्योगिकी किसी चीज को निजी रहने नहीं देते। यही इनकी सबसे बड़ी खासियत है और यही सबसे बड़ी कमजोरी। इसी के चलते योग यूरोप में जाकर योगा हो गया और भारत में नए सिरे से लौटकर हिंदुत्ववादी संस्कृति, राजनीति और फिर ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रतीक बन गया। रामदेव के शामिल होने से योग का कारपोरेटीकरण और व्यावसायीकरण हो गया और नरेंद्र मोदी जैसे संघ प्रचारक और प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक आसन बन गया। भाजपा के महासचिव और संघ के पूर्व पदाधिकारी राम माधव ने भारत के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की योग दिवस पर उपस्थिति को निशाना बनाकर देश की शीर्ष संस्था के सांप्रदायीकरण का प्रयास किया। लेकिन अब आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड तमाम मुल्लाओं और मौलवियों को योग न करने का निर्देश जारी करके और इसे ब्राह्मणवादी और इस्लाम विरोधी बताकर नया विवाद खड़ा कर रहा है। उस विवाद की आग में घी डालने का काम साध्वी प्राची जैसे हिंदुत्ववादी नेताओं के बयानों से किया जा रहा है। अगर हमें योग की अहमियत को बचाना है और इसे सर्वग्राही बनाकर इसका लाभ धर्म के दायरे से ऊपर उठकर सभी लोगों तक पहुंचाना है तो इस धार्मिक और राष्ट्रवादी श्रेष्ठता का औजार बनाने से बचना होगा। यह अपील हिंदूवादी संगठनों से भी होनी चाहिए और मुस्लिम संगठनों से भी और उन सेक्यूलर साथियों से भी जो मोदी को निशाने पर लेने के लिए किसी भी औजार का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते।
शरीर और मस्तिष्क को स्वस्थ बनाने, उसमें संतुलन बिठाने के लिए किया जाने वाला योग आधुनिक जीवन पद्धति और चिकित्सा पद्धति से एक प्रकार की असहमति भी है। यह असहमति उन बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों, अस्पतालों और बीमा कंपनियों से भी है जो स्वास्थ्य को मुनाफे का धंधा बनाए हुए हैं। उन्होंने सौदर्यीकरण के नाम पर स्त्री शरीरों पर इतने प्रकार के आपरेशन और चीड़फाड़ की है कि अगर उसे यहां उजागर करने बैठ जाएं तो सिहरन दौड़ उठेगी। उस लिहाज से देखा जाए तो ब्यूटी और चिकित्सा उद्योग को लगभग सौंपे जा चुके मानव देह की मुक्ति का एक अभियान है योग। निश्चित तौर पर सूर्य नमस्कार और ओम के उच्चारण को लेकर इस्लाम के मानने वालों की आपत्तियां हैं और उसे देखते हुए भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने इसे योग दिवस से निकाल दिया। पर योग के बहाने देश और विदेश में अंतरधार्मिक संवाद भी होना चाहिए, जो कि भारत में भक्तिकाल और मुगलकाल की सबसे बड़ी विशेषता रही है। इसे देखते हुए ही हजारी प्रसाद व्दिवेदी ने ताजिक नीलकंठी का जिक्र करते हुए कहा था कि किस तरह ज्योतिष के क्षेत्र में भारत और अरब की एकता कायम हुई थी। संभवतः योग भी उसी साझी विरासत का एक रूप बन सकता है अगर उसे किसी को दबाने और चिढ़ाने की बजाय जनस्वास्थ्य और सद्भावना के लिए इस्तेमाल किया जाए।


Tuesday, June 23, 2015

किसे चाहिए प्लास्टिक?


देश के सबसे बड़े पर्यावरण न्यायालय राष्ट्रीय हरित पंचाट में प्लास्टिक पर छिड़ी है बहस। क्या प्लास्टिक पर पूरी तरह से पाबंदी लगाया जाना संभव है? क्या ऐसा करना जरूरी है या गैर जरूरी? अगर जरूरी है तो तमाम कानूनों के बावजूद प्लास्टिक पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है? अगर गैर जरूरी है तो वे कानून बनाए ही क्यों गए जो कि लागू नहीं किए जा सकते? क्या प्लास्टिक पर पाबंदी लगाए जाने से और पेड़ कटेंगे और हमारे पर्यावरण की और क्षति होगी या पर्यावरण साफ और स्वास्थ्य के अनुकूल होगा? क्या प्लास्टिक हमारी आदत बन चुका है और हम लाख चाह कर के भी इससे मुक्त नहीं हो सकते? या किसी समूह का निहित स्वार्थ है जो प्लास्टिक को कभी खत्म नहीं होने देगा?
शायद यह आज के दौर की सबसे जरूरी बहस हो सकती है अगर इसमें वैज्ञानिकों, प्रशासकों, नीतिकारों , उद्योग मालिकों , चिकित्सकों और उपभोक्ताओं को हर स्तर पर शामिल किया जाए और तमाम अध्ययनों के माध्यम से इस पर बात की जाए। अच्छा हो कि एनजीटी इस मामले पर जल्दी फैसला न दे बल्कि इसकी बहस को व्यापक चेतना का हिस्सा बनाए जिसमें दवा उद्योग से लेकर विभिन्न उद्योगों को शामिल किया जाए और आम जनता के पूरे अनुभव और समझ को भी शामिल किया जाए। प्लास्टिक के प्रयोग और न प्रयोग करने की बहस को हम अपने परिवार से लेकर बाजार तक हर स्तर पर देख सकते हैं। कई बार प्लास्टिक का विरोध करने वाले स्वयं दूध, दही, सब्जी और दवाई प्लास्टिक के ही पैकेट में लेकर आते हैं। कभी कभी वे दूसरे झोले और वर्तन ले जाना भूल जाते हैं तो कई बार वे वस्तुएं प्लास्टिक के ही पैक में उपलब्ध होती हैं। लेकिन कई बार वे झोला लेकर बाजार जाते भी हैं और सब्जी वाले से लाख कहने के बावजूद कि वह सब्जी झोले में ही दे, सब्जीवाला किसी न किसी प्लास्टिक थैली में सब्जी रख ही देता है। कई बार सब्जी वाला न रखे तो पति या पत्नी में से एक पक्ष प्लास्टिक में रखने पर जोर देता है। जाहिर है प्लास्टिक के कम से कम प्रयोग की चेतना का विस्तार अच्छी तरह से हुआ नहीं है न ही हो पा रहा है। प्लास्टिक का कम प्रयोग वहीं संभव हुआ है जहां पर इस तरह की स्पष्ट पाबंदियां हैं। उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश ऐसा राज्य है जहां प्लास्टिक का कम से कम दिखाई पड़ता है लेकिन वह राज्य भी पूरी तरह से मुक्त है ऐसा नहीं कहा जा सकता। कमोवेश यही स्थिति दिल्ली की भी है। जहां पाबंदी के बावजूद हर काम धड़ल्ले से होता है।
उत्तराखंड के एक एनजीओ हिम जागृति उत्तरांचल वेल्फेयर सोसायटी ने एनजीटी में एक याचिका दायर कर यह मांग रखी है कि प्लास्टिक को पूरी तरह से रोकने के लिए प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियमावली में बदलाव किया जाए, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण मंत्रालय और केंद्र सरकार इस बारे में स्पष्ट निर्देश दिया जाए। उसकी दलील है कि पैकेजिंग में होने वाले प्लास्टिक के निर्बाध और अनियंत्रित प्रयोग का स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। वह न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है बल्कि उसके तमाम जहरीले तत्व मानव स्वास्थ्य को हानि कर रहे हैं। आज की स्थिति यह है कि देश में 15,3422 मीट्रिक टन प्लास्टिक का कचरा रोज निकलता है। यह नदियों, नालों, तालाबों, जंगल, जमीन, मिट्टी और इंसान के साथ जानवरों तक के लिए जानलेवा साबित हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि किसी भी सरकारी संस्था ने प्लास्टिक के पक्ष में दलील नहीं दी है बल्कि सभी का कहना है कि प्लास्टिक का प्रयोग नुकसानदेह है और इसके बारे में विस्तृत अध्ययन होना चाहिए और उन्हें इसे समाप्त करने के लिए चरणबद्ध कार्यक्रम बनाने का समय दिया जाना चाहिए।
एनजीटी का कहना था कि याचिकाकर्ता यह बताए कि किस एक पक्षकार पर दबाव डालने से यह काम संपन्न होगा।
लेकिन दूसरी तरफ अखिल भारतीय प्लास्टिक उत्पादक संघ(एआईपीएमए) ने प्लास्टिक के पक्ष में पूरी तरह से मोर्चा संभाल रखा है। उसका कहना है कि समस्या प्लास्टिक से नहीं उसके कचरे के निस्तारण से उत्पन्न हो रही है। उसका यह भी तर्क है कि प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित है और उसका न सिर्फ फिर से इस्तेमाल में लाया जा सकता है बल्कि उसको रिसाइकिल किया जा सकता है। ऐसे में अगर प्लास्टिक को कम किया गया तो पर्यावरण का ज्यादा नुकसान होगा। कागज के लिए ज्यादा पेड़ कटेंगे और अखबार व कागज के कचरे का निस्तारण भी बदइंतजामी का ही शिकार है। क्योंकि प्लास्टिक से कम कागज इधर उधर उड़ता हुआ नहीं पाया जाता। प्लास्टिक के पक्ष में इस संघ की महत्त्वपूर्ण दलील यह भी है कि अगर प्लास्टिक का उत्पादन बंद हुआ तो इस उद्योग से जुड़े लाखों लोग बेरोजगार होंगे। उसकी दलील यहां तक जाती है कि प्लास्टिक के खत्म किए जाने से कांच के वर्तनों का उपयोग बढ़ेगा जिससे उनकी ढुलाई में ज्यादा ईंधन खर्च होगा। कांच के वर्तनों को धोने में जो पानी खर्च होगा उससे भी पर्यावरण पर बुरा असर पड़ेगा।

जाहिर है कि प्लास्टिक निर्माता संघ की दलीलों से यह बहस बहुत रोचक हो चली है और इस पर खुलकर बात होनी ही चाहिए। इसकी चेतना का विस्तार घर-घर होना चाहिए। ताकि हम समझ सकें कि आधुनिक सभ्यता के एक आविष्कार को हम कितना सहेजें और कितना फेकें। हम पिछले तीस चालीस सालों से प्लास्टिक युग की गूंज सुन रहे हैं। अब तो वह प्लास्टिक मनी में भी बदल चुकी है। व्यवहार में हमने प्लास्टिक को जीवन दायी दवाओं से लेकर खाने पीने की हर चीज के पैकेज के तौर पर जरूरी मान लिया है और उसके बिना जी नहीं पाते। लेकिन उसके हानिकारक प्रभावों के सामने आने से थोड़े सचेत हुए हैं पर पूरी तरह से प्लास्टिक के विरोधी नहीं हो सके हैं। सवाल बड़ा है क्या आधुनिक सभ्यता का यह उत्पाद पर्यावरण के सवालों से टकराकर अपनी लंबी श्रृंखला जो कि उसकी रासायनिक विशेषता है उसे तोड़ देगा या फिर पर्यावरण के ही नाम पर अपने को प्रासंगिक बनाकर चलता रहेगा? इसीलिए एनजीटी में चलने वाली यह बहस लोक बहस का हिस्सा बननी चाहिए और हमारे जीवन को नई समझ मिलनी चाहिए। 

दिल्ली बनाम दिल्ली की जंग में


दिल्ली की केंद्र सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार की लड़ाई दिनोंदिन तीखी और छिछली होती जा रही है। जाहिर सी बात है कि इसमें अभी तो आप पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री केजरीवाल पिटते दिख रहे हैं लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होने वाला है। समय- समय पर कानूनी और संवैधानिक दिखने वाली यह लड़ाई निश्चित तौर पर राजनीतिक है और इससे भविष्य में देश के लिए नई राजनीति निकलने की संभावना समाप्त नहीं हुई है।
दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री जितेंद्र तोमर की बीएससी और एलएलबी की डिग्री अगर फर्जी है तो उनके साथ किसी को सहानुभूति नहीं होनी चाहिए और उन पर कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए। लेकिन इस मामले में दिल्ली पुलिस का रवैया बदले का नहीं है और उसने अपनी कार्रवाई में एक कानून पालन करने वाली प्रोफेशनल संस्था की तटस्थता और निष्पक्षता दिखाई है ऐसा नहीं लगता। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का यह दावा कि पुलिस सबूतों के आधार पर कार्रवाई कर रही है इतना तक तो सही लगता है, लेकिन उसे विशेष तौर पर तोमर के खिलाफ सबूत जुटाने और फिर उन्हें रिमांड पर लेकर जलील करने का फैसला महज पुलिस का नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो केंद्र की एनडीए सरकार में कम से कम दो- तीन मंत्रियों की डिग्रियों के फर्जी होने और एक के बलात्कार में शामिल होने की निष्पक्षता और कड़ाई से जांच होती और उन्हें भी इसी तरह गिरफ्तार करके रिमांड पर उनके शहरों में ले जाया जाता और फर्जी डिग्रियों के रैकेट का पता लगाया जाता। क्योंकि अगर अवध विश्वविद्यालय और भागलपुर विश्वविद्यालय में फर्जी डिग्रियों का रैकेट है और दिल्ली से हजार, डेढ़ हजार किलोमीटर की इस दूरी तक दिल्ली पुलिस की सक्रियता है तो फिर दिल्ली से ढाई घंटे की दूरी पर स्थित आगरा जाकर तहकीकात करने में उसे क्या दिक्कत आ रही थी। वह दिक्कत राजनीतिक है और उसी के आधार पर दिल्ली की पुलिस अपनी प्राथमिकताएं तय कर रही है।
चाहे कानून मंत्री जितेंद्र तोमर की बिना नोटिस के की जाने वाली गिरफ्तारी हो या एंटी करप्शन ब्यूरो के प्रमुख के तौर पर उपराज्यपाल की तरफ से ज्वाइंट कमिश्नर एमके मीणा और मुख्यमंत्री की तरफ से एसएस यादव की समांतर नियुक्ति का सवाल हो या धर्मपाल को उपराज्यपाल की तरफ से और राजेंद्र कुमार को मुख्यमंत्री की तरफ से गृह सचिव बनाए जाने का मामला हो यह सब सत्ता संघर्ष है जो केंद्र सरकार के इशारे के बिना नहीं चल सकता। इस संघर्ष में निजी तौर पर, व्यवस्थागत तौर पर और राजनीतिक तौर पर अगर किसी की सबसे ज्यादा दिलचस्पी हो सकती है तो वह मोदी सरकार और केजरीवाल सरकार की। यह सब नसीब जंग अपनी मर्जी और मजे के लिए कर रहे हैं ऐसा मानना गलत होगा।
जाहिर है इस मामले में संविधान में दिए गए केंद्र राज्य संबंधों की नजाकत और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली कार्यव्यवहार नियमावली 1993 का अपना योगदान है। उसकी उलझनें दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्वों और सरकारों  के आसपास अस्तित्व में आने से ज्यादा खुलकर सामने आ गई हैं जो बड़ी दिल्ली में मनमोहन सिंह और छोटी दिल्ली में शीला दीक्षित के एक ही पार्टी से संबंधित होने के कारण दबी हुई थीं। दिक्कत यह है कि इस मामले में न तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कोई समाधान दे पा रहे हैं और न ही राष्ट्रपति। आखिरकार यह कार्यपालिका के दो महत्त्वाकांक्षी नेताओं की जंग बनकर रह गई है जिसमें दिल्ली का प्रशासन त्रिशंकु की तरह आसमान में अटक गया है। इस लड़ाई में केजरीवाल यह भूल गए हैं कि उनकी सारी ताकत नैतिक थी, जिसे दिल्ली की जनता ने अपने प्रचंड जनादेश से राजनीतिक शक्ति प्रदान की थी। पर उसकी सारी प्रतिष्ठा नैतिक बने रहने में ही थी क्योंकि दिल्ली राज्य की संरचना देश के अन्य राज्यों जैसी है नहीं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण केजरीवाल भले अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व बन गए हों लेकिन उनकी सरकार की हैसियत नगर निगम से भी कमजोर है। केजरीवाल को यह भी सोचना चाहिए था कि जिस जनता ने उन्हें 67 सीटों का बहुमत दिया उसी ने लोकसभा में मोदी को राजधानी की सात सीटों का तोहफा भी दिया। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार मिटाने और देश के विकास का मोदी का दावा जनता को ज्यादा ग्राह्य हुआ है तभी पच्चीस साल बाद देश में पहली बार किसी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ है। लेकिन केजरीवाल अपने जनादेश के मद में उसी तरह नैतिकता और लोकतंत्र भूल गए जिस तरह मोदी लोकसभा में अपने विजय के मद में हर्षवर्धन और पार्टी के दूसरे लोगों को भूलकर किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना बैठे।
केजरीवाल की सत्ता छोटी है और उस लिहाज से उनका मद बड़ा था। उन्होंने प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और योगेंद्र यादव के साथ जिस तरह की बदसलूकी करके उन्हें निष्कासित किया, उससे लग गया  कि उनकी राजनीतिक शैली इस्तेमाल करने और फेंकने की है। वे यह भूल गए कि उन्होंने जिन लोगों को अपशब्द कह कर पार्टी से निष्कासित किया वे उनकी पार्टी ही नहीं लंबे समय से देश के कई आंदोलनों और विचारधाराओं के स्तंभ और ध्वजवाहक थे। वे झाड़पोछकर रालेगढ़ सिद्धी से लाए गए अन्ना हजारे जैसे कम पढ़े लिखे और बूढे समाजसेवी नहीं थे जिनसे मुक्ति पा कर केजरीवाल को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। आज ऐसा कहने वालों की कमी नहीं है कि केजरीवाल ने अगर प्रशांत भूषण का कहा मानकर दागी लोगों को टिकट न दिया होता और टिकट दिया तो दिया बाद में मंत्री न बनाया होता तो आज उनकी ऐसी दशा नहीं होती। क्योंकि अपने को श्रीमान दुग्धधवल बताने वाले केजरीवाल की पलटन में दागी और अपराधियों का सिलसिला यहीं नहीं खत्म होता। वह दिल्ली कैंट के विधायक सुरिंदर सिंह की बीए की डिग्री तक भी जाता है। मामले और भी हैं और जब केंद्र की दिल्ली सरकार पीछे ही पड़ी है तो दिल्ली पुलिस उसे ढूंढ ही निकालेगी। शायद वह केजरीवाल सरकार को कलंकित करके कमजोर करने का धारावाहिक चलाना चाहती है, इसलिए सारे मामले एक साथ नहीं कर रही है।

लेकिन दिल्ली की केंद्र सरकार की नीति में केजरीवाल का दीर्घकालिक फायदा भी है। एक तरफ से अपने को प्रताड़ित बनाकर दिल्ली की जनता और देश की सहानूभूति बटारते रह सकते हैं और धीरे-धीरे पूर्ण राज्य के मुद्दे को गरमा सकते हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि केजरीवाल इस केंद्र बनाम राज्य के राजनीतिक संघर्ष का मुद्दा बनाते हुए 2001 में पेश सरकारिया आयोग की सिफारिशों की बातों को उठा सकते हैं। मोदी सरकार भले वित्तीय संघवाद का हवाला दे लेकिन हकीकत में उसका रवैया तानाशाहीपूर्ण है और आगे और होने वाला है। ऐसे में केजरीवाल को अस्सी के दशक की उस राजनीति के पन्ने पलटने चाहिए जब इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री एकजुट होने लगे थे और उनकी वह एकता राजीव गांधी के लिए बड़ी चुनौती बनकर सामने आई। एनटीराम राव, देवीलाल , प्रकाश सिंह बादल, फारूक अब्दुल्ला, रामकृष्ण हेगड़े, ज्योति बसु, बीजू पटनायक सभी ने मिलकर राज्यों की स्वायत्तता के बहाने केंद्र के विरुद्ध जो राष्ट्रीय मोर्चा बनाया वह कांग्रेस को सत्ता से हटाने में कामयाब रहा। आज केजरीवाल उसी ढर्रे पर चल रहे हैं। वे नीतीश कुमार से अफसरों की मदद ले रहे हैं। देर सबेर नीतीश कुमार उनकी भी मदद लेंगे। केजरीवाल को इस तरह का रिश्ता ममता बनर्जी और राहुल गांधी से भी कायम करना होगा। लेकिन राज्यों की स्वायत्तता और उनके विशेष दर्जे का सवाल दबने वाला नहीं है। यह सवाल बिहार के साथ भी उठेगा और पश्चिम बंगाल के साथ भी। फिलहाल पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यंमंत्री त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के नेतृत्व में प्रधानमंत्री से मिलने के लिए 45 दिन से समय मांग रहे हैं लेकिन उन्हें अभी तक नहीं मिला है। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इस पर विशेष नाराजगी जताई है। केजरीवाल की समस्याओं का समाधान दिल्ली में ही नहीं है। उसके तार दूर तक जाते हैं। लेकिन वह तभी हो सकता है जब केजरीवाल इस्तेमाल करके फेंकना छोड़ें और नैतिक अनैतिक का फर्क करना समझें । वे अपने आसपास वैसे लोगों का जमावड़ा न इकट्ठा करें जिनका मकसद महज निहित स्वार्थ और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा हो। अगर वे ऐसा करते हैं तो एक बार फिर दिल्ली बनाम दिल्ली की जंग में बड़ी जीत की ओर बढ़ सकते हैं। वरना उनका रोज वही अपमान होगा जो हो रहा है।  

फिल्म संस्थान में महाभारत


भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणे अपनी स्वायत्तता के लिए संघर्षरत है। केंद्र सरकार उसे राष्ट्रवादी बनाना चाहती है और वह रचनात्मक बने रहना चाहता है। एनडीए की मौजूदा सरकार को लगता है कि देश के फिल्म और टेलीविजन जगत पर वामपंथी फिल्मकारों और रचनाकारों को कब्जा रहा है और उसे बदले जाने की जरूरत है। हो सकता है कांग्रेस के शासनकाल में और भारत में वामपंथी आंदोलन के साथ रचनाकारों का गहरा रिश्ता होने के नाते ऐसा रहा भी हो और सोवियत संघ के पतन और पूंजीवाद के विजय के साथ वैसा संतुलन लाना एक हद तक जरूरी भी हो। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि देश के एक प्रमुख संस्थान को उन भाजपाइयों को सौंप दिया जाए जिनकी न तो उस स्तर की योग्यता है और न ही इस विविधता और उदारता वाले देश की बेहतर समझ। एफटीआईआई पुणे के अध्यक्ष का पद एक साल से खाली था। जब से सईद अख्तर मिर्जा हटे तब से सरकार को कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल पाया। अदूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल और गुलजार जैसी विभूतियों के नामों पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय में चर्चाएं हुईं भी लेकिन उन्हें मजूरी नहीं मिल पाई। सरकार ने अध्यक्ष पद के लिए गजेंद्र चौहान का नाम चुना जिनकी कुल जमा ख्याति महाभारत धारावाहिक में पांडवों के बड़े भाई युद्धिष्ठिर की भूमिका निभाने की है। एफटीआईआई में आठ में से जिन चार प्रमुख लोगों की नियुक्ति की गई है वे सब भी भाजपा से ही ताल्लुक रखते हैं।

एनडीए सरकार ने यह सिलसिला नेशनल बुक ट्रस्ट, केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी और आइसीएचआर सभी जगह चला रखा है। हो सकता है कि संघ के हिंदुत्ववादी सोच से प्रभावित लोग इन संस्थाओं से वह राष्ट्रवादी विमर्श पैदा करें जो कांग्रेस और जनता पार्टी और राष्ट्रीय मोर्चा का शासन नहीं पैदा कर पाया और हो सकता है उससे भारत निर्माण का विचार और समृद्ध व विविधता भरा रूप ले। लेकिन ज्यादा खतरा इस बात का है कि भारत का पूरा विचार इतना संकीर्ण हो जाए कि वह अगले दस बीस साल तक चलने लायक ही न बचे। इसलिए संस्थाओं के इस प्रकार कब्जाने से भाजपा को भले लाभ हो लेकिन देश को नुकसान हो सकता है। 
दो पाटों के बीच में दिल्ली
अरुण कुमार त्रिपाठी
दिल्ली बहुमत और करिश्माई नेताओं के दो पाटों के बीच फंस गई है। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी को अपने इतिहास में पहली बार बहुमत पाने का अहंकार है तो दूसरी तरफ दो दिन पहले खड़ी हुई आप पार्टी को अपने प्रचंड बहुमत के घमंड के साथ ही उसके अस्तित्व को बचाने की चुनौती है। लेकिन मोदी और अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व का टकराव भी कम नहीं है। दो पाटों के इस टकराव के बीच न तो भारतीय जनता पार्टी के अच्छे दिन के दावे सही साबित हो पा रहे हैं, न ही आप पार्टी की नई राजनीति के। साफ सुथरी राजनीति करने के केजरीवाल के दावे को पूर्व मंत्री जितेंद्र तोमर के फर्जी डिग्री प्रकरण से धक्का लगा है। इससे आप पार्टी की ईमानदारी तार-तार हो गई है। सोमनाथ भारती के घरेलू विवाद और विधायक सुरिंदर सिंह की भी डिग्री पर संदेह और 17 अन्य विधायकों के किसी न किसी गड़बड़ी में शामिल होने की आशंका से अगले डेढ़ साल तक आप पार्टी की सरकार को विवादों में उलझाए रखने का खतरा बन गया है। दूसरी तरफ झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्य का गठन करने, हाल में राज्यों को वित्तीय स्वायत्तता देने और कभी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से आप पार्टी की सरकार के साथ व्यवहार कर रही है, वह इंदिरा गांधी के तानाशाही वाले दिनों की याद दिलाने के लिए काफी है। इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत केरल में पहली बार चुन कर आई कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को गिराकर की थी और इस काम को वे बार-बार दोहराती रहीं। नरेंद्र मोदी दिल्ली विधानसभा की हार का बदला केजरीवाल को शक्तिहीन साबित करके, बदनाम करके और चारों तरफ से घेरकर करना चाहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ममता बनर्जी, नवीन कुमार, जयललिता और अन्य राज्यों की गैर-भाजपाई सरकारों को नाथने के लिए अगर केंद्र सरकार को सीबीआई की जरूरत है तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सरकार को घेरने के लिए दिल्ली पुलिस की ही काफी है। मोदी ने दिल्ली की सवा करोड़ जनता के आदेश को विधानसभा की बजाय नगर निगम जैसी हैसियत में सीमित कर दिया है।
पिछले दो महीनों में उपराज्यपाल यानी लाट साहब के माध्यम से बड़ी दिल्ली की सरकार ने छोटी दिल्ली की सरकार को तरह सत्ता संघर्ष में फंसा कर रुलाया है वह दिल्ली की जनता का अपमान तो है ही साथ में भाजपा के अपने संघीय उसूलों की भी अवहेलना है। दिलचस्प बात है कि इस काम में उस मीडिया ने भी सरकार का भरपूर साथ दिया है जो देश में लंबे समय मोदी का अखंड शासन देखना चाहता है और अपने साथ देश का भी भगवाकरण करना चाहता है। धीरे-धीरे यह दिल्ली की रणभूमि नैतिक से ज्यादा राजनीतिक होती जा रही है। अगर केजरीवाल नैतिक जमीन खो रहे हैं तो मोदी भी उस नैतिक उम्मीद को झुठला रहे हैं कि वे बदले की भावना से काम नहीं करेंगे। दिल्ली में दो-दो गृह सचिवों की नियुक्ति और दो-दो एंटी करप्शन ब्यूरो की नियुक्ति से प्रशासन पंगु ही नहीं त्रिशंकु बन गया है। अफसरों के दफ्तरों में ताले और एक की फाइल का आदेश मानने और दूसरे को खारिज करने के साथ यह लड़ाई सबसे गंदे रूप में तब सामने आई जब दिल्ली की सड़कों पर सफाई कर्मचारियों ने कूड़ा फैलाकर यहां की राजनीतिक स्थिति का बयान कर दिया। कांग्रेस, भाजपा और आप की इस खींचतान में न तो मोदी के स्वच्छ भारत की चिंता रही न ही सभी को स्वास्थ्य देने की आप पार्टी के दावे की।

इस छीछालेदर वाली राजनीति के बीच केजरीवाल अपने को प्रताड़ित बनाकर नई राजनीति की पटकथा जरूर लिख रहे हैं। वे राज्यों के प्रति केंद्र के व्यवहार का सवाल कभी नीतीश कुमार तो कभी ममता से मिलकर उठाने लगे हैं। वे देर सबेर पूर्वोत्तर राज्यों की उस गोलबंदी से भी जुड़ सकते हैं जो त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के नेतृत्व में बन रहे कई राज्यों के असंतोष के इर्द गिर्द जमा हो रही है। लेकिन इस बारे में केंद्र सरकार भी चौकस है। देखना है कि दिल्ली की इस गंदी राजनीति का अंत किसी भयानक गंदगी में होता है या इससे कुछ स्वच्छ आबोहवा बनती है?  

Monday, June 11, 2012


डिंपल की जीत के मायने





अरुण कुमार त्रिपाठी
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और सपा उम्मीदवार डिंपल यादव ने जिस तरह से कन्नौज लोकसभा सीट से ऐतिहासिक जीत दर्ज की है उसके तीन संदेश हैं। जाहिर है यह परिवारवाद की प्रचंड विजय है और उसके आगे देश और प्रदेश के के सारे प्रमुख राजनीतिक दल नतमस्तक हैं। दूसरा संदेश है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का डंका बज रहा है और अब उसके आगे भाजपा और कांग्रेस क्या उसकी प्रमुख प्रतिव्दंव्दी बसपा भी आगे आकर अपनी भद नहीं कराना चाहती। इस जीत का एक तीसरा संदेश भी है कि मुलायम सिंह और उनके परिवार के प्रति उत्तर प्रदेश में एक व्यापक सदाशयता उभरी है और क्या वे उसका उपयोग किसी बड़े मकसद के लिए कर पाएंगे ? यह विडंबना है कि जिस प्रदेश में समाजवादियों ने नेहरू के परिवारवाद के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन छेड़ा और जिसकी विरासत पर मुलायम सिंह दावा कर रहे हैं वे स्वयं आज वहीं पहुंच गए हैं। जब अखिलेश यादव पहली बार राजनीति में आए और कन्नौज से परचा भर निकले तो पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। उनसे पूछा कि आप की पार्टी कांग्रेस के परिवारवाद का विरोध करती है लेकिन आप का राजनीति में आना क्या परिवारवाद नहीं है ? उन्हें शायद जबाव देर से सूझता और वह उतना सटीक नहीं भी हो सकता था लेकिन साथ खड़े जनेश्वर मिश्र ने अपनी सरल और संप्रेषणीय शैली में जवाब दिया कि वह सत्ता का परिवारवाद है और यह संघर्ष का। हालांकि वह कहने की बात थी और अब मुलायम सिंह का परिवारवाद भी सत्ता का ही हो गया है। पर यह विचित्र स्थिति है कि जब प्रदेश गांधी नेहरू के राष्ट्रीय परिवार से विमुख हो रहा है तब वह एक प्रादेशिक परिवार को अपना रहा है। हाल में विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता ने रायबरेली और अमेठी में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के डेरा डालने के बावजूद उन विशिष्ट इलाकों की सीटों पर उनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवारों को जिस बुरी तरह से हराया है वह इसी का प्रमाण है। उस पृष्ठभूमि में डिंपल यादव की ऐतिहासिक जीत का विशेष महत्व बन जाता है। कहने के लिए आज मुलायम के परिवार की प्रदेश में वही स्थिति हो गई है जो कभी नेहरू के परिवार की देश के स्तर पर थी। मुलायम के परिवार की तुलना तमिलनाडु के करुणानिधि परिवार और पंजाब के प्रकाश सिंह बादल परिवार से की जा सकती है। लेकिन यहां वे ज्यादा सफल कहे जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने पारिवारिक प्रतिस्पर्धा को संभाल कर अखिलेश को युवा अवस्था में ही यूपी जैसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि करुणानिधि के साथ उसकी संभावना क्षीण लगती है। वहां स्तालिन और अझगिरी में ज्यादा घमासान है और करुणानिधि ज्यादा बूढ़े भी हो चुके हैं। मुलायम वाली संभावना बादल के साथ है लेकिन अभी वह सपना साकार नहीं हुआ है। हालांकि इस कामयाबी में अखिलेश यादव का पना योगदान भी कम नहीं है।
इस चुनाव का दूसरा अर्थ प्रदेश के बाकी दलों की स्थिति पर एक टिप्पणी है। कांग्रेस पार्टी से तो राष्ट्रपति चुनाव के कारण सपा का तालमेल बन रहा है और ममता बनर्जी के दगा देने पर उसके दीर्घकालिक संकटमोचन बनने के आसार हैं। इसलिए कांग्रेस का उम्मीदवार न खड़ा करना समझ में आता है। इसी तरह बसपा ने 2009 में घोषणा कर रखी है कि वह कोई उपचुनाव नहीं लड़ेगी। इसलिए लगभग हारने वाले चुनाव में उतर कर वह अपनी प्रतिष्ठा और कार्यकर्ताओं के मनोबल को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी। लेकिन आंतरिक कलह में उलझी भारतीय जनता पार्टी को आखिर क्या हो गया ? ब्राह्मण बहुल कन्नौज क्षेत्र में वह लड़ते हुए भी क्यों नहीं दिखना चाहती थी ? क्यों उसके उम्मीदवार डेढ़ घंटे पहले परचा भरने लखनऊ से कन्नौज के लिए रवाना होते हैं जबकि वह रास्ता तीन घंटे से कम का नहीं है।  क्या वह अहंकार के शिखर पर बैठे बड़े नेताओं का एक समूह बन गई है या उसके नेता मायावती और मुलायम सिंह से इतने उपकृत हैं कि वे उनकी राह में कोई रोड़ा अटकाना नहीं चाहते ? क्या यह जनसंघ और समाजवादियों की मित्रता की पुरानी विरासत है या भाजपा की हाराकीरी की इच्छा ? क्या ऐसी पार्टी को गुजरात से आकर नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में खड़ा कर पाएंगे ?
लेकिन इस चुनाव का संदेश इन बातों से बड़ा है और वह है मुलायम सिंह यादव को मिली व्यापक सद्भावना और उससे बनने वाले अवसर का। यह महज संयोग हो सकता है कि इस चुनाव में उनकी बहू जीत कर आई है लेकिन इस जीत  की लक्ष्मी से वे स्त्रियों के सबलीकरण की राजनीति का श्रीगणेश भी कर सकते हैं। यह सभी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव, शरद और लालू प्रसाद जब महिला आरक्षण विधेयक का कड़ा विरोध करते हैं तो उनके मन में उससे अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति के कमजोर पड़ने और उन सीटों पर सवर्ण महिलाओं के हावी होने का खौफ रहता है। लेकिन आज वे ऐसी राजनीतिक स्थिति में हैं कि उन्हें यह खौफ मिटा देना चाहिए। वे इस जीत को संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के एक ऐतिहासिक सुअवसर के तौर पर ले सकते हैं। अगर वे 33 प्रतिशत आरक्षण का न भी समर्थन करें तो भी उसे पार्टियों में टिकट देने के रूप में तो शुरू ही कर सकते हैं। उन्हें आगे बढ़कर उस मामले पर कोई पहल करनी चाहिए। डिंपल की इस जीत से शरद यादव का वह भय भी घट सकता है कि संसद में परकटी महिलाओं की भरमार हो जाएगी। उन्हें याद रखना चाहिए कि डा राममनोहर लोहिया की सप्तक्रांतियों में पहला कार्यक्रम नर नारी समता का ही था। आज उन्हें भी इस सवाल पर सोचना चाहिए कि दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए सवर्णों को खाद बनने की सीख देने वाले डा लोहिया आखिर क्यों सबसे पहले पहले नर-नारी समता को ही महत्व देते थे। लोहिया के इस आह्वान को मुलायम सिंह को जरूर सुनना चाहिए। उनके अलावा इसे अखिलेश और डिंपल यादव को भी सुनना चाहिए। अगर वे इस अवसर पर इस संदेश को नहीं सुन पाए तो भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की 1952 में इलाहाबाद में हासिल की गई जीत के टक्कर की यह विजय नेहरू के परिवार की तरह एक प्रादेशिक परिवारवाद की जीत बनकर रह जाएगी और पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए महज जश्न का मौका बन कर विस्मृत हो जाएगी।



Sunday, June 3, 2012



जिम्मेदारी चाहिए, पाबंदी नहीं




अरुण कुमार त्रिपाठी
कुछ दिन पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव अतुल कुमार अनजान जब एक गोष्ठी से क्रांतिकारी भाषण देकर निकले तो उन्हें पकड़ लिया। बताइए आखिर क्या किया जाए ?  जिस आवारा पूंजी की शिकायत आप कर रहे हैं और राजनीति को जिसका शिकार बता रहे हैं उसका शिकार मीडिया भी है बुद्धिजीवी भी हैं। भले कुछ बड़ी बात या बड़ा दर्शन नहीं निकल रहा है, वह बहुत श्रेष्ठ रच नहीं पा रहा है लेकिन अभिव्यक्ति की सारी सीमाएं टूट रही हैं और तमाम तरह के व्दार खुल गए हैं। जाति आधारित गाली गलौच मची हुई है। महज नेता ही नहीं अहसिष्णु हो रहे हैं हमारा साहित्यिक समाज भी एक दूसरे के लिए बेहद कटु और विभाजित है। विशेष कर जबसे अस्मिताओं की राजनीति शुरू हुई है तबसे सब अपने-अपने हिस्से की इज्जत करते हैं कोई दूसरे की इज्जत करने को तैयार नहीं है। इस पर अतुल अनजान का कहना था कि क्या करें भारतीय समाज ऐसा ही है। उनका यह वाक्य बहस से पलायन भी था और सोच की गहराई में उतरने के लिए एक सीढ़ी भी। क्या सचमुच हमारा मीडिया वैसा ही हो रहा है जैसा हमारा समाज है ? या मीडिया समाचारों और विचारों की ऐसी संसद बन गई है जिसका सत्र अनवरत चल रहा है पर जहां कोई सत्ता पक्ष नहीं है और न ही कोई स्पीकर है। सभी विपक्ष हैं और हर कोई किसी न किसी से भिड़ा हुआ है। क्या यह मीडिया की बरबरीक ग्रंथि है जो जहां भी कोई हारने लगेगा उसी की तरफ से लड़ने को तैयार हो जाएगा या यह उसका स्वार्थ है कि जहां कुछ मिलने वाला होगा उसी तरफ होकर उसी की भाषा बोलने लगेगा।
मीडिया की तमाम कमियों के बावजूद उसका उसी तरह एक बहुलवादी रूप उभरा है जैसा भारतीय समाज का है। जाहिर है बहुलवाद अगर जिम्मेदारी के साथ चले तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की तरफ जाता है और अगर गैर जिम्मेदारी से चले तो अराजकता की तरफ। यही वजह कि मौजूदा मीडिया के इस स्वरूप में एक तरफ लोकतंत्र देखा जा रहा है तो दूसरी तरफ अराजकतावाद। लोकतंत्र देखने वाले उसे संयम बरतने और आत्मनियंत्रण की सलाह दे रहे हैं तो अराजकता की आहट देखने वाले चौतरफा पाबंदी का इंतजाम करने में लगे हैं। जब प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ही नहीं न्यायमूर्ति एस एच कपाडिया भी दिशानिर्दश की जरूरत महसूस करते हों तो जाहिर है कि मामला गंभीर है। वह बहस हाल में संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी पर हुई हाल की श्रेष्ठतम बहस थी जो न्यायमूर्ति कपाडिया की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ के सामने 17 दिनों तक हुई। उस बहस में संविधान के अनुच्छेद 19(1) और 21 आमने सामने खड़े हो गए। इस बहस ने हमारे दोनों प्रेस आयोगों की सिफारिशों और प्रेस परिषद के सुझावों से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की कठिन यात्रा की झलक पेश कर दी। यह भी कहा गया कि पहले ही मीडिया पर पाबंदी लगाने के लिए इतने कानून हैं कि किसी नए कानून की क्या जरूरत है ? इतना ही नहीं जब अनुच्छेद 19(2) स्वयं अपने ऊपर आठ तरह के युक्तिसंगत प्रतिबंध लगा लेता है और उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए देश में तमाम तरह के कानून बनाए गए हैं तो अब और क्या चाहिए? खास बात यह है कि इन नई तरह की पाबंदियों की बात वे लोग कर रहे हैं जो कानून के गहरे जानकार हैं और रोज उसकी नई नई व्याख्या प्रस्तुत करते रहते हैं।
इसलिए गड़बड़ी कहां है ? या तो उन कानूनों का कोई कहीं ठीक से इस्तेमाल ही नहीं कर रहा है या फिर मीडिया इतना ताकतवर हो गया है कि उसके सामने वे नाकारा हो गए हैं? दरअसल मीडिया के मौजूदा रूप से वे ज्यादा परेशान हैं जिन्होंने उसे उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में पाल पोस कर बड़ा किया था। उन्हें उम्मीद थी कि वह उनका वफादार रहेगा और आखिर तक उन्हीं की भाषा बोलेगा। वह एक हद तक उनकी बात का कायल भी रहा क्योंकि इक्कीसवीं सदी का पहला दशक कुछ ऐसा रह जैसे मीडिया में समाचारों और विचारों के बारे में एक महाआमसहमति बन गई हो। उसने मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और झुग्गी झोपड़ी वालों की बात करनी बंद कर दी थी। इस दौरान उनके अधिकारों के दमन में मीडिया ने सहयोग भी किया। लेकिन ढांचागत सुधार के बहाने विचारों और समाचारों पर लादी गई यह तानाशाही ज्यादा समय तक चल नहीं पाई। वह नीतियों सभी लोगों क्या उनकी जरूरत पर भी खरी नहीं उतरीं जो उस पर लट्टू हुए जा रहे थे। उनको जगह जगह से चुनौती मिलने लगी और उन नीतियों पर चलने वालों से महाघोटाले उजागर होने लगे। लगा जैसे इन नीतियों के जरूरी अंग घोटाले से ही बने हों। व्यवस्था को अप्रिय लगने वाली वे खबरें मीडिया के सीने पर सवार हो गईं। वे कभी हाशिए पर रहने वाले समाज की हिंसा के माध्यम से आने  लगीं तो कभी मुख्यधारा के मध्यवर्ग के अहिंसक आंदोलन के तौर पर। इस बीच प्रौद्योगिकी को विकास ने मीडिया को वह नहीं रहने दिया जो उसके बारे में सोचा गया था। वह सोशल मीडिया के रूप में इतना फैल गया कि बड़ी पूंजी और बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों को ठेंगा दिखाने लगा। समाचारों और टिप्पणियों का एकदम नया पर्यावरण बन गया जो किसी बंदिश को मानने को तैयार ही नहीं। जहां फेसबुक और ट्विटर से लेकर विकीलीक्स तक जाने की आजादी है। वह आजादी जो इंसान के दिलो दिमाग को तो छूती ही है और जो राजसत्ता का उपहास भी उड़ाती है। वह कभी किसी बड़े नेता की आपत्तिजनक सीडी जारी करती है तो कभी किसी शिगूफे से सनसनी पैदा करती है। पर एक बात जाहिर है कि अब कोई खबर रुक नहीं सकती। वह कहीं न कहीं तो आ ही जाएगी। इसने बड़े लोगों में एक लाचारी पैदा की है। इससे वे भी हैरान हैं जिन्होंने एक दौर में उसे पूंजी के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इसलिए अब वे उसे राज्य के माध्यम से नियंत्रित करना चाह रहे हैं। राज्य के माध्यम से नियंत्रित मीडिया वाले देश अभी भी दुनिया  हैं। चीन उसका बड़ा उदाहरण है। उसकी तरक्की हमें ललचाती है तो उसका मीडिया हमें डराता है। लेकिन अराजक मीडिया भी हमें परेशान करता है। वह कहीं लोकतंत्र को जातियों, धर्मों और अस्मिताओं के नए टकराव तंत्र में न बदल दे? उसमें उत्साही लोग भी आए हैं और धंधेबाज लोगों की भी तादाद बढ़ी है। वह जनता के हित के बहाने चंद लोगों के स्वार्थ साधने का औजार भी बना है। लेकिन यहां हम यह कह कर नहीं बच सकते कि हमारा समाज जैसा है उसे वैसा ही मीडिया नसीब हुआ है। हमें अगर ज्यादा लोकतांत्रिक समाज बनाना है तो उसके लिए आजादी भी चाहिए और जिम्मेदारी भी। क्योंकि स्वतंत्रता स्वशासन से चलती है और स्वशासन अपने पर शासन करने का नाम है। मीडिया को स्वशासन की लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। इस पर विमर्श करने का हक सभी को है लेकिन पाबंदी लगाने का किसी को नहीं।