Monday, June 11, 2012


डिंपल की जीत के मायने





अरुण कुमार त्रिपाठी
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और सपा उम्मीदवार डिंपल यादव ने जिस तरह से कन्नौज लोकसभा सीट से ऐतिहासिक जीत दर्ज की है उसके तीन संदेश हैं। जाहिर है यह परिवारवाद की प्रचंड विजय है और उसके आगे देश और प्रदेश के के सारे प्रमुख राजनीतिक दल नतमस्तक हैं। दूसरा संदेश है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का डंका बज रहा है और अब उसके आगे भाजपा और कांग्रेस क्या उसकी प्रमुख प्रतिव्दंव्दी बसपा भी आगे आकर अपनी भद नहीं कराना चाहती। इस जीत का एक तीसरा संदेश भी है कि मुलायम सिंह और उनके परिवार के प्रति उत्तर प्रदेश में एक व्यापक सदाशयता उभरी है और क्या वे उसका उपयोग किसी बड़े मकसद के लिए कर पाएंगे ? यह विडंबना है कि जिस प्रदेश में समाजवादियों ने नेहरू के परिवारवाद के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन छेड़ा और जिसकी विरासत पर मुलायम सिंह दावा कर रहे हैं वे स्वयं आज वहीं पहुंच गए हैं। जब अखिलेश यादव पहली बार राजनीति में आए और कन्नौज से परचा भर निकले तो पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। उनसे पूछा कि आप की पार्टी कांग्रेस के परिवारवाद का विरोध करती है लेकिन आप का राजनीति में आना क्या परिवारवाद नहीं है ? उन्हें शायद जबाव देर से सूझता और वह उतना सटीक नहीं भी हो सकता था लेकिन साथ खड़े जनेश्वर मिश्र ने अपनी सरल और संप्रेषणीय शैली में जवाब दिया कि वह सत्ता का परिवारवाद है और यह संघर्ष का। हालांकि वह कहने की बात थी और अब मुलायम सिंह का परिवारवाद भी सत्ता का ही हो गया है। पर यह विचित्र स्थिति है कि जब प्रदेश गांधी नेहरू के राष्ट्रीय परिवार से विमुख हो रहा है तब वह एक प्रादेशिक परिवार को अपना रहा है। हाल में विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता ने रायबरेली और अमेठी में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के डेरा डालने के बावजूद उन विशिष्ट इलाकों की सीटों पर उनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवारों को जिस बुरी तरह से हराया है वह इसी का प्रमाण है। उस पृष्ठभूमि में डिंपल यादव की ऐतिहासिक जीत का विशेष महत्व बन जाता है। कहने के लिए आज मुलायम के परिवार की प्रदेश में वही स्थिति हो गई है जो कभी नेहरू के परिवार की देश के स्तर पर थी। मुलायम के परिवार की तुलना तमिलनाडु के करुणानिधि परिवार और पंजाब के प्रकाश सिंह बादल परिवार से की जा सकती है। लेकिन यहां वे ज्यादा सफल कहे जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने पारिवारिक प्रतिस्पर्धा को संभाल कर अखिलेश को युवा अवस्था में ही यूपी जैसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि करुणानिधि के साथ उसकी संभावना क्षीण लगती है। वहां स्तालिन और अझगिरी में ज्यादा घमासान है और करुणानिधि ज्यादा बूढ़े भी हो चुके हैं। मुलायम वाली संभावना बादल के साथ है लेकिन अभी वह सपना साकार नहीं हुआ है। हालांकि इस कामयाबी में अखिलेश यादव का पना योगदान भी कम नहीं है।
इस चुनाव का दूसरा अर्थ प्रदेश के बाकी दलों की स्थिति पर एक टिप्पणी है। कांग्रेस पार्टी से तो राष्ट्रपति चुनाव के कारण सपा का तालमेल बन रहा है और ममता बनर्जी के दगा देने पर उसके दीर्घकालिक संकटमोचन बनने के आसार हैं। इसलिए कांग्रेस का उम्मीदवार न खड़ा करना समझ में आता है। इसी तरह बसपा ने 2009 में घोषणा कर रखी है कि वह कोई उपचुनाव नहीं लड़ेगी। इसलिए लगभग हारने वाले चुनाव में उतर कर वह अपनी प्रतिष्ठा और कार्यकर्ताओं के मनोबल को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी। लेकिन आंतरिक कलह में उलझी भारतीय जनता पार्टी को आखिर क्या हो गया ? ब्राह्मण बहुल कन्नौज क्षेत्र में वह लड़ते हुए भी क्यों नहीं दिखना चाहती थी ? क्यों उसके उम्मीदवार डेढ़ घंटे पहले परचा भरने लखनऊ से कन्नौज के लिए रवाना होते हैं जबकि वह रास्ता तीन घंटे से कम का नहीं है।  क्या वह अहंकार के शिखर पर बैठे बड़े नेताओं का एक समूह बन गई है या उसके नेता मायावती और मुलायम सिंह से इतने उपकृत हैं कि वे उनकी राह में कोई रोड़ा अटकाना नहीं चाहते ? क्या यह जनसंघ और समाजवादियों की मित्रता की पुरानी विरासत है या भाजपा की हाराकीरी की इच्छा ? क्या ऐसी पार्टी को गुजरात से आकर नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में खड़ा कर पाएंगे ?
लेकिन इस चुनाव का संदेश इन बातों से बड़ा है और वह है मुलायम सिंह यादव को मिली व्यापक सद्भावना और उससे बनने वाले अवसर का। यह महज संयोग हो सकता है कि इस चुनाव में उनकी बहू जीत कर आई है लेकिन इस जीत  की लक्ष्मी से वे स्त्रियों के सबलीकरण की राजनीति का श्रीगणेश भी कर सकते हैं। यह सभी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव, शरद और लालू प्रसाद जब महिला आरक्षण विधेयक का कड़ा विरोध करते हैं तो उनके मन में उससे अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति के कमजोर पड़ने और उन सीटों पर सवर्ण महिलाओं के हावी होने का खौफ रहता है। लेकिन आज वे ऐसी राजनीतिक स्थिति में हैं कि उन्हें यह खौफ मिटा देना चाहिए। वे इस जीत को संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के एक ऐतिहासिक सुअवसर के तौर पर ले सकते हैं। अगर वे 33 प्रतिशत आरक्षण का न भी समर्थन करें तो भी उसे पार्टियों में टिकट देने के रूप में तो शुरू ही कर सकते हैं। उन्हें आगे बढ़कर उस मामले पर कोई पहल करनी चाहिए। डिंपल की इस जीत से शरद यादव का वह भय भी घट सकता है कि संसद में परकटी महिलाओं की भरमार हो जाएगी। उन्हें याद रखना चाहिए कि डा राममनोहर लोहिया की सप्तक्रांतियों में पहला कार्यक्रम नर नारी समता का ही था। आज उन्हें भी इस सवाल पर सोचना चाहिए कि दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए सवर्णों को खाद बनने की सीख देने वाले डा लोहिया आखिर क्यों सबसे पहले पहले नर-नारी समता को ही महत्व देते थे। लोहिया के इस आह्वान को मुलायम सिंह को जरूर सुनना चाहिए। उनके अलावा इसे अखिलेश और डिंपल यादव को भी सुनना चाहिए। अगर वे इस अवसर पर इस संदेश को नहीं सुन पाए तो भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की 1952 में इलाहाबाद में हासिल की गई जीत के टक्कर की यह विजय नेहरू के परिवार की तरह एक प्रादेशिक परिवारवाद की जीत बनकर रह जाएगी और पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए महज जश्न का मौका बन कर विस्मृत हो जाएगी।



Sunday, June 3, 2012



जिम्मेदारी चाहिए, पाबंदी नहीं




अरुण कुमार त्रिपाठी
कुछ दिन पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव अतुल कुमार अनजान जब एक गोष्ठी से क्रांतिकारी भाषण देकर निकले तो उन्हें पकड़ लिया। बताइए आखिर क्या किया जाए ?  जिस आवारा पूंजी की शिकायत आप कर रहे हैं और राजनीति को जिसका शिकार बता रहे हैं उसका शिकार मीडिया भी है बुद्धिजीवी भी हैं। भले कुछ बड़ी बात या बड़ा दर्शन नहीं निकल रहा है, वह बहुत श्रेष्ठ रच नहीं पा रहा है लेकिन अभिव्यक्ति की सारी सीमाएं टूट रही हैं और तमाम तरह के व्दार खुल गए हैं। जाति आधारित गाली गलौच मची हुई है। महज नेता ही नहीं अहसिष्णु हो रहे हैं हमारा साहित्यिक समाज भी एक दूसरे के लिए बेहद कटु और विभाजित है। विशेष कर जबसे अस्मिताओं की राजनीति शुरू हुई है तबसे सब अपने-अपने हिस्से की इज्जत करते हैं कोई दूसरे की इज्जत करने को तैयार नहीं है। इस पर अतुल अनजान का कहना था कि क्या करें भारतीय समाज ऐसा ही है। उनका यह वाक्य बहस से पलायन भी था और सोच की गहराई में उतरने के लिए एक सीढ़ी भी। क्या सचमुच हमारा मीडिया वैसा ही हो रहा है जैसा हमारा समाज है ? या मीडिया समाचारों और विचारों की ऐसी संसद बन गई है जिसका सत्र अनवरत चल रहा है पर जहां कोई सत्ता पक्ष नहीं है और न ही कोई स्पीकर है। सभी विपक्ष हैं और हर कोई किसी न किसी से भिड़ा हुआ है। क्या यह मीडिया की बरबरीक ग्रंथि है जो जहां भी कोई हारने लगेगा उसी की तरफ से लड़ने को तैयार हो जाएगा या यह उसका स्वार्थ है कि जहां कुछ मिलने वाला होगा उसी तरफ होकर उसी की भाषा बोलने लगेगा।
मीडिया की तमाम कमियों के बावजूद उसका उसी तरह एक बहुलवादी रूप उभरा है जैसा भारतीय समाज का है। जाहिर है बहुलवाद अगर जिम्मेदारी के साथ चले तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की तरफ जाता है और अगर गैर जिम्मेदारी से चले तो अराजकता की तरफ। यही वजह कि मौजूदा मीडिया के इस स्वरूप में एक तरफ लोकतंत्र देखा जा रहा है तो दूसरी तरफ अराजकतावाद। लोकतंत्र देखने वाले उसे संयम बरतने और आत्मनियंत्रण की सलाह दे रहे हैं तो अराजकता की आहट देखने वाले चौतरफा पाबंदी का इंतजाम करने में लगे हैं। जब प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ही नहीं न्यायमूर्ति एस एच कपाडिया भी दिशानिर्दश की जरूरत महसूस करते हों तो जाहिर है कि मामला गंभीर है। वह बहस हाल में संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी पर हुई हाल की श्रेष्ठतम बहस थी जो न्यायमूर्ति कपाडिया की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ के सामने 17 दिनों तक हुई। उस बहस में संविधान के अनुच्छेद 19(1) और 21 आमने सामने खड़े हो गए। इस बहस ने हमारे दोनों प्रेस आयोगों की सिफारिशों और प्रेस परिषद के सुझावों से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की कठिन यात्रा की झलक पेश कर दी। यह भी कहा गया कि पहले ही मीडिया पर पाबंदी लगाने के लिए इतने कानून हैं कि किसी नए कानून की क्या जरूरत है ? इतना ही नहीं जब अनुच्छेद 19(2) स्वयं अपने ऊपर आठ तरह के युक्तिसंगत प्रतिबंध लगा लेता है और उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए देश में तमाम तरह के कानून बनाए गए हैं तो अब और क्या चाहिए? खास बात यह है कि इन नई तरह की पाबंदियों की बात वे लोग कर रहे हैं जो कानून के गहरे जानकार हैं और रोज उसकी नई नई व्याख्या प्रस्तुत करते रहते हैं।
इसलिए गड़बड़ी कहां है ? या तो उन कानूनों का कोई कहीं ठीक से इस्तेमाल ही नहीं कर रहा है या फिर मीडिया इतना ताकतवर हो गया है कि उसके सामने वे नाकारा हो गए हैं? दरअसल मीडिया के मौजूदा रूप से वे ज्यादा परेशान हैं जिन्होंने उसे उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में पाल पोस कर बड़ा किया था। उन्हें उम्मीद थी कि वह उनका वफादार रहेगा और आखिर तक उन्हीं की भाषा बोलेगा। वह एक हद तक उनकी बात का कायल भी रहा क्योंकि इक्कीसवीं सदी का पहला दशक कुछ ऐसा रह जैसे मीडिया में समाचारों और विचारों के बारे में एक महाआमसहमति बन गई हो। उसने मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और झुग्गी झोपड़ी वालों की बात करनी बंद कर दी थी। इस दौरान उनके अधिकारों के दमन में मीडिया ने सहयोग भी किया। लेकिन ढांचागत सुधार के बहाने विचारों और समाचारों पर लादी गई यह तानाशाही ज्यादा समय तक चल नहीं पाई। वह नीतियों सभी लोगों क्या उनकी जरूरत पर भी खरी नहीं उतरीं जो उस पर लट्टू हुए जा रहे थे। उनको जगह जगह से चुनौती मिलने लगी और उन नीतियों पर चलने वालों से महाघोटाले उजागर होने लगे। लगा जैसे इन नीतियों के जरूरी अंग घोटाले से ही बने हों। व्यवस्था को अप्रिय लगने वाली वे खबरें मीडिया के सीने पर सवार हो गईं। वे कभी हाशिए पर रहने वाले समाज की हिंसा के माध्यम से आने  लगीं तो कभी मुख्यधारा के मध्यवर्ग के अहिंसक आंदोलन के तौर पर। इस बीच प्रौद्योगिकी को विकास ने मीडिया को वह नहीं रहने दिया जो उसके बारे में सोचा गया था। वह सोशल मीडिया के रूप में इतना फैल गया कि बड़ी पूंजी और बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों को ठेंगा दिखाने लगा। समाचारों और टिप्पणियों का एकदम नया पर्यावरण बन गया जो किसी बंदिश को मानने को तैयार ही नहीं। जहां फेसबुक और ट्विटर से लेकर विकीलीक्स तक जाने की आजादी है। वह आजादी जो इंसान के दिलो दिमाग को तो छूती ही है और जो राजसत्ता का उपहास भी उड़ाती है। वह कभी किसी बड़े नेता की आपत्तिजनक सीडी जारी करती है तो कभी किसी शिगूफे से सनसनी पैदा करती है। पर एक बात जाहिर है कि अब कोई खबर रुक नहीं सकती। वह कहीं न कहीं तो आ ही जाएगी। इसने बड़े लोगों में एक लाचारी पैदा की है। इससे वे भी हैरान हैं जिन्होंने एक दौर में उसे पूंजी के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इसलिए अब वे उसे राज्य के माध्यम से नियंत्रित करना चाह रहे हैं। राज्य के माध्यम से नियंत्रित मीडिया वाले देश अभी भी दुनिया  हैं। चीन उसका बड़ा उदाहरण है। उसकी तरक्की हमें ललचाती है तो उसका मीडिया हमें डराता है। लेकिन अराजक मीडिया भी हमें परेशान करता है। वह कहीं लोकतंत्र को जातियों, धर्मों और अस्मिताओं के नए टकराव तंत्र में न बदल दे? उसमें उत्साही लोग भी आए हैं और धंधेबाज लोगों की भी तादाद बढ़ी है। वह जनता के हित के बहाने चंद लोगों के स्वार्थ साधने का औजार भी बना है। लेकिन यहां हम यह कह कर नहीं बच सकते कि हमारा समाज जैसा है उसे वैसा ही मीडिया नसीब हुआ है। हमें अगर ज्यादा लोकतांत्रिक समाज बनाना है तो उसके लिए आजादी भी चाहिए और जिम्मेदारी भी। क्योंकि स्वतंत्रता स्वशासन से चलती है और स्वशासन अपने पर शासन करने का नाम है। मीडिया को स्वशासन की लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। इस पर विमर्श करने का हक सभी को है लेकिन पाबंदी लगाने का किसी को नहीं। 

Wednesday, May 23, 2012


माटी में मिलती ममता



अरुण कुमार त्रिपाठी




कैसी मशाल लेकर चले तीरगी में आप, जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही। लगता है दुष्यंत कुमार का यह शेर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर ठीक बैठ रहा है। उम्मीद की जा रही थी कि वे मार्क्सवादियों की वाममोर्चा सरकार का विकल्प पेश करने के लिए उनसे भी ज्यादा वामपंथी हो रही हैं और वे एक प्रकार से ऊंची छलांग लगा रही हैं। लेकिन उन्होंने ऊंची और लंबी छलांगों के विपरीत मार्क्सवादी शासन के अतीत में ऐसी छोटी छलांगें लगानी शुरू कर दी हैं जहां उन्हें बार बार बच्चों के स्लाइड गेम की तरह पतन का आनंद प्राप्त हो रहा है। उनकी कार्यशैली को देखकर एक तरफ इंदिरा गांधी के आपातकाल और जयललिता व मायावती के दमनकारी शासन की यादें ताजा हो जाती हैं तो दूसरी तरफ जार्ज आरवेल के उपन्यास 1984 का स्मरण होने लगता है। फर्क यही है कि 1984 में कम्युनिस्टों की सर्वसत्तावादी तानाशाही के दौरान नागरिक स्वतंत्रता पर बिग ब्रदर ने पहरा लगा रखा था और यहां कम्युनिस्टों को सत्ता से हटाकर आई तृणमूल कांग्रेस की बड़ी दीदी ने अभिव्यक्ति की आजादी पर निगरानी की ठान रखी है। उस उपन्यास में हर घर में टेलीस्क्रीन लगा हुआ था ताकि पार्टी और सरकार विरोधी गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके, जबकि यहां ममता बनर्जी के सहयोगी तमाम सोशल मीडिया को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए उस पर आक्रामक निगरानी कर रहे हैं।
यही कारण है कि आजकल कोलकाता में हरमद थेके उन्मद का जुमला चल निकला है। मतलब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की हरमद वाहिनी यानी दमनकारी गुंडों की फौज गई तो तृणमूल की पागलों की फौज आ गई है। यह जुमला जिस तरह से गढ़ा गया है उससे साफ है कि इसके पीछे बंगाल के बुद्धिजीवियों का दिमाग है और यह हैरानी की बात नहीं है उनके खिलाफ बुद्धिजीवियों के प्रदर्शन होने लगे हैं। प्रसिद्ध लेखिका और जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी जब कहती हैं-  तानाशाही कभी सफल नहीं होती। वह न तो हिटलर के जर्मनी में कामयाब हुई, न ही मुसोलिनी के इटली में- तो उनकी ही नहीं उनके पीछे खड़ी बंगाल के बौद्धिकों, कलाकारों और रचनाकारों की पूरी बिरादरी की नाराजगी का अहसास होता है। हालांकि महाश्वेता देवी की नाराजगी मीडिया और मध्यवर्ग की तरह हाल में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिषेक महापात्र और माइक्रोबायलाजिस्ट पार्थ सारथी राय की गिरफ्तारी से ही नहीं शुरू हुई है। उनकी नाराजगी उसी समय से चालू हो गई थी जब ममता बनर्जी ने माओवादियों से छल करते हुए लालगढ़ में कार्रवाई की और माओवादी नेता किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव को मरवा दिया। यह बात जगजाहिर है कि ममता बनर्जी ने पहले लोकसभा और बाद में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए माओवादियों का सहारा लिया था। बल्कि जिस सिंगुर और नंदीग्राम संघर्ष के बाद उनकी राजनीति में निर्णायक मोड़ आया उसमें तृणमूल कांग्रेस की तरह ही माओवादियों की भी  भागीदारी बताई जाती है।
लेकिन ममता ने माओवाद समर्थकों को ही नहीं नाराज किया। आमरी अस्पताल में अग्निकांड के बाद जिस तरह से उसके मालिकों की गिरफ्तारी हुई, उससे वहां का पूंजीपति वर्ग भी चिढ़ गया। टाटा की नैनो परियोजना को भगाए जाने और प्रियंका टोडी के मामले में रिजवानुर का पक्ष लेने के बाद वह पहले से ही नाराज था। नाराजगी का यह दायरा तब और बढ़ गया जब ममता ने अपने खिलाफ लिखने वाले तमाम अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों में खरीदे जाने पर रोक लगा दी। उसी के साथ रूस की अक्तूबर क्रांति और मार्क्सवाद को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया। अखबारों को हटाने के लिए दलील दी गई कि सरकार इस प्रकार से मझोले अखबारों को प्रोत्साहित करना चाहती है और पाठ्यक्रम के लिए दलील दी गई कि सरकार महात्मा गांधी और नेहरू जैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को उचित जगह देना चाहती है।
ममता सरकार ने अपने प्रति नाराजगी का घेरा उस समय और बढ़ा लिया जब उन्होंने अपनी पार्टी के रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को आनन फानन में बर्खास्त करवा दिया और फिर दिनेश त्रिवेदी, मुकुल राय के साथ दीदी के कार्टून को ई मेल करने वाले प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को नारी की गरिमा को आहत करने और मानहानि के आरोप में गिरफ्तार करवा दिया। हद तो तब हो गई जब झुग्गी झोपड़ी वालों के विस्थापन के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले वैज्ञानिक पार्थ सारथी राय को पकड़ लिया गया और उनके पक्ष में नाम चामस्की जैसे बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया। जबकि पार्थ सारथी ने सिंगुर और नंदीग्राम जैसे आंदोलनों में भी हिस्सा लिया था।
विरोधियों के दमन की इन कार्रवाइयों के कारण वाममोर्चा के 34 साल के शासन के पतन के बाद पश्चिम बंगाल में जो उम्मीदें हरी हुई थीं वे साल भर में ही मुरझा रही हैं। पर क्या इन सारी स्थितियों का ठीकरा ममता बनर्जी के सिर ही फोड़ा जाए या उसके लिए उन ताकतों को भी जिम्मेदार माना जाए जो ममता बनर्जी का अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रही थीं?  वे ताकतें वाममोर्चा सरकार को तो हटाना चाहती थीं लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में उसी की नीतियों को लाना चाहती थीं। वे चाहती थीं कि ममता बनर्जी केंद्र सरकार पर उदारीकरण को तेज करने के लिए दबाव डालें न कि वामपंथियों की तरह उसे रोकने के लिए। हालांकि दिनेश त्रिवेदी के प्रति ममता बनर्जी की नाराजगी को महज अहम का टकराव बताया गया पर वजह इतनी ही नहीं थी। दरअसल दिनेश त्रिवेदी प्रणव मुखर्जी और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के इशारे पर विश्व बैंक प्रेरित योजना आयोग का एजेंडा लागू कर रहे थे। जिसके तहत रेलवे की तरक्की का रास्ता निजीकरण से ही होकर गुजरता है।इसलिए जहां वह ताकतवर वर्ग ममता को तरह से तरह से बदनाम करना चाहता है वहीं वे उसका मुकाबला रणनीतिक तरीके से करने के बजाय आंख मूंद कर करना चाहती हैं और ऐसा करते हुए वे दमन के दुष्चक्र में फंसती जाती हैं।
लेकिन ममता का यह कहना आंशिक तौर पर सही है कि उनके रहन सहन और गरीब परिवेश से आने के कारण बंगाल का भद्रलोक उन्हें हिकारत की नजर से देखता है जबकि गरीब और ग्रामीण जनता अभी भी उनके साथ है। आखिर उनके संघर्षों को देखकर यही भद्रलोक उन्हें देवी भी मानने लगा था। लेकिन कोई भी समाज ऐसा नेता नहीं चाहेगा जो उसी से लड़ने लगे। यह बात सही है कि मार्क्सवादियों ने अपने 34 साल के शासन में अपने विरोधियों को हाशिए पर रखा और उसके लिए पार्टी के ढांचे का भरपूर इस्तेमाल किया। उन्होंने ममता बनर्जी को निजी तौर पर भी समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन वे अपने समाज से लड़ते हुए नहीं दिखते थे और जब दिखे तो तबाह हुए। सिंगुर और नंदीग्राम उसके उदाहरण हैं।
मार्क्सवादी संभवतः यह समझते थे कि बंगाल की सामाजिक सांस्कृतिक विरासत क्या है ? उसमें हमेशा लड़ा ही नहीं जाता बल्कि कभी ठहर कर प्रेम और हंसी मजाक भी किया जाता है और एक दूसरे को सहा जाता है। इसकी झलक रवींद्र नाथ टैगोर से लेकर महाश्वेता देवी तक में दिखाई पड़ती है। महाश्वेता देवी ने जब बुद्धदेव को बुद्धूदेव कहा तो उन्हें सहना पड़ा। इसीलिए मार्क्सवादियों ने शुरू में वर्गशत्रु तलाशे और बाद में उन्हीं से हंसना खेलना शुरू कर दिया। उन्होंने तृणमूल के नेताओं की तरह यह नहीं कहा कि उनसे शादी विवाह बंद कर दो। वे धर्मनिरपेक्षता का दावा भी करते थे और दुर्गापूजा कमेटियों में भी रहते थे।

किसी भी शासक के लिए बहुत जरूरी होता है अपने पूर्ववर्ती की कमियों से परहेज करना और उसकी अच्छाइयों को ग्रहण करना। ममता बनर्जी मार्क्सवादियों की तरह पार्टी का संगठित गिरोह जैसा ढांचा नहीं बना सकतीं और उन्हें बनाना भी नहीं चाहिए। लेकिन उन्हें पार्टी और सरकार को तुनक मिजाजी तरीके से नहीं चलाना चाहिए। उसे निहित स्वार्थ के गिरोहों से मुक्त रखते हुए लोकतांत्रिक रूप देना चाहिए, जो वे नहीं कर पा रही हैं।
 बंगाल का शाक्त समाज देवी का उपासक है। वह उनकी विजय भी देखना चाहता है। वह आसुरी शक्तियों के नियंत्रित संहार के लिए दुर्गा का आह्वान करता है लेकिन काली की सर्वसंहारक प्रवृत्तियों को शांत करने के लिए उन्हें भी पूजता है। पर वह दुर्गा को उसी तरह थोड़े समय के लिए स्थापित करता है जिस तरह महाराष्ट्र का समाज विघ्नविनाशक गणेश को करता है। वह दुर्गा को हमेशा नहीं रखता बल्कि थोड़े दिनों में आंसुओं के साथ उनका विसर्जन कर आता है। अगर लोकतंत्र को एक युद्ध मानकर दुर्गा और काली के बीझ झूल रही ममता बनर्जी शासन करने के लिए नया अवतार नहीं लेतीं तो क्या पता बंगाल उन्हें भी उसी विरासत का हिस्सा बना दे

आदिवासियों को चाहिए आंबेडकर




अरुण कुमार त्रिपाठी




बस्तर के जंगलों से सुकमा के  अगवा कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर लौटे डा ब्रह्म देव शर्मा ने जब दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों से बातचीत करनी चाही तो फिर वही--- आना गावें आन भवाना गावें आन--- वाली स्थिति उपस्थित थी। डा शर्मा बार-बार कह रहे थे कि आदिवासियों की नाराजगी का प्रमुख कारण उनसे विधिवत संवाद कायम न किया जाना है। उनके साथ सालों से किए गए वादों को लगातार तोड़ा गया है और जब उनके शोषण में हस्तक्षेप करने दादा लोग(माओवादी) पहुंच गए तो उनका दमन किया जा रहा है। लेकिन उनकी बात समझने के लिए न तो व्यावसायिक मीडिया के लोग तैयार थे, न ही वे लोग जो माओवाद से सहानुभूति रखते हैं। एक तरफ पत्रकार पूछ रहे थे कि आखिर डील क्या हुई और उससे रमन सिंह क्यों मुकर गए तो दूसरी तरफ यह पूछा जा रहा था कि क्या इससे आपरेशन ग्रीन हंट रुक गया और 13 दिनों में जो युद्धविराम कायम हुआ उसके कितने समय तक चलने की उम्मीद है। कुछ मिलाकर हार जीत और लेनदेन का हिसाब किताब मांगा जा रहा था। किसी ने पूछा कि आपने आपरेशन ग्रीन हंट देखा या नहीं, तो किसी ने पूछा कि आप सलवा जुड़ूम से मिले क्या?  इन हास्यास्पद और विडंबनापूर्ण सवालों के बीच यह भी टिप्पणियां सुनने को मिलीं कि लगता है कि अगवा करना ही एक कारगर तरीका है।
डा शर्मा एक मध्यस्थ के नाते तात्कालिक बातों को छुपाते हुए दीर्घकालिक बातों को प्रकट करना चाहते थे और उसके लिए- टूटे वायदों का अनटूटा इतिहास- जैसी किताब भी बांट रहे थे लोग किताबें देख कर भी उनसे वैसे ही सवाल पूछ रहे थे। इस तरह की किताबें और साहित्य वे लंबे समय से बांट रहे हैं पर उनकी किसी भी प्रेस कांफ्रेस में उसमें दर्ज बुनियादी मुद्दों पर चर्चा नहीं होती। पचहत्तर पार कर चुके बीडी शर्मा मजाक में ही लेकिन दुख के साथ यह कहते रहते हैं कि लगता है लोग मेरे जीते जी मेरी बात नहीं सुनेंगे और जब सुनेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी क्योंकि आदिवासी इस समय वैश्वीकरण के खिलाफ सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं और इसमें उनके साथ वास्तव में कोई नहीं है। धोती कुर्ता पहनने वाले डा बीडी शर्मा देश के उन गिने चुने आईएएस अधिकारियों में रहे हैं जिनमें ईमानदारी , विव्दता और जनसरोकारों का अद्भुत समन्वय है। उससे भी बड़ी बात है कि उन्होंने अपने को देश के आदिवासी समाज से उसी तरह एकाकार कर लिया है जिस तरह डा भीमराव आंबेडकर ने दलित मसलों के साथ कर लिया था। वे बस्तर के कलेक्टर रहे हैं और उस दौरान उन्होंने आदिवासी लड़कियों के दैहिक शोषण के खिलाफ सामाजिक अभियान चलाकर नौकरशाही को चौंका दिया था। उन्होंने एक पंचायत बुलाकर उन अफसरों की शादी कराने का फैसला करा दिया था जिन्होंने आदिवासी लड़कियों का शोषण किया था। इसी सिलसिले में 1986 में उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त के तौर पर उसकी 28 वीं और 29 वीं रपट में भारत को इंडिया, भारत और हिंदुस्तनवा जैसी तीन श्रेणियों में बांटकर देश की आंखें खोल दी थीं। उस तरह की रपटों और उनके सहयोग के कारण ही देश में नर्मदा बचाओ जैसा आंदोलन खड़ा हुआ और देश में चल रहे पर्यावरण और स्थानीय आबादी के आंदोलन को बल मिला था।
लेकिन जब देश ने उन सवालों से आंखें मूंद ली हैं और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के मौजूदा अध्यक्ष पीएल पूनिया महज आरक्षण की नीति में ही सारा समाधान देखते हैं तब फिर एक मौलिक दृष्टि की दरकार हो रही है। सबसे पहली जरूरत तो अनुसूचित जातियों के साथ अनुसूचित जनजातियों को संबद्ध करने के नुकसान को पहचानने की है। दलित बुद्धिजीवी ऐसा अक्सर करते हैं लेकिन उससे उनका तो फायदा हो जाता है पर आदिवासियों की स्थिति जस की तस रहती है। एक साथ संबद्ध किए जाने की इस नीति ने पहली श्रेणी यानी दलितों को तो लाभान्वित किया लेकिन आदिवासियों को नुकसान पहुंचाया। बल्कि कई जगहों पर तो दूसरे की कीमत पर पहली श्रेणी ने तरक्की की है, यह बात कुछ अध्ययनों में सामने आई है। अगर ऐसा न हुआ होता तो आदिवासी वजूद की लड़ाई न लड़ते और दलित देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने का सपना न देखते। डा आंबेडकर व्दारा लिखे गए भारतीय संविधान और उसके पीछे काम करने वाले आधुनिकतावादी नजरिए ने एक तरफ आदिवासियों से उनकी स्वायत्तता छीनी और दूसरी तरफ उन्हें उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया। रोचक बात यह है कि आंबेडकर ने अछूतों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे घुमंतू और बसे हुए कबीलों के युद्ध के कारण पैदा हुए। जो लोग हार गए उन्हें बसे हुए कबीलों ने अपनी रक्षा के लिए तैनात कर लिया। इसके उदाहरण के लिए वे महार जाति का उल्लेख करते हैं।
 उनके वर्णन में आदिवासी समुदाय आपस में लड़ते रहने वाला और लूटपाट करने वाला समुदाय होता है। इस नजरिए ने आदिवासियों को सभ्य बनाने और उनके भीतर शांति कायम करने के लिए उन पर बाहर से तमाम कानून थोपने का रास्ता साफ किया। हालांकि वेरियर एल्विन और सब आल्टर्न इतिहासकारों का आदिवासियों के बारे में नजरिया इससे काफी अलग था। एल्विन जहां उन्हें एक सभ्य और व्यवस्थित समाज बताते थे, वहीं सब-आल्टर्न उन्हें एक क्रांतिकारी समाज की संज्ञा देते हैं। अपनी इसी क्रांतिकारिता के कारण अंग्रेजों से जितनी लंबी और उग्र लड़ाई आदिवासियों ने लड़ी है उतनी शायद दलित समुदाय ने नहीं लड़ी।
एल्विन की इसी व्याख्या को बढ़ाते हुए बीडी शर्मा कहते हैं कि आदिवासियों की सोच और कथित सभ्य समाज की सोच में काफी फर्क है। आदिवासी अपने को नौकर मानने को तैयार  नहीं होता क्योंकि वह तो मालिक रहा है। वह तो कहता है कि-- धरती भगवान ने बनाई, हम भगवान के बेटे हैं, यह बीच में सरकार कहां से आई। सोच के इन दो छोरों के बावजूद  संविधान की पांचवीं अनुसूची में यह व्यवस्था की गई कि अगर राज्यपाल चाहे तो भारत के किसी भी कानून को आदिवासी इलाकों में लागू होने से रोक सकता है तो उसके पीछे उन्हें महत्व देने का ही भाव था। लेकिन उनकी स्वशासन और स्वायत्तता की प्रवृत्ति को बचाने की यह कोशिश भी बेकार गई क्योंकि किसी राज्यपाल ने ऐसा कभी नहीं किया। उल्टे उदारीकरण के साथ आई नई खनन और उद्योग नीति ने तो  पांचवीं अनुसूची का मजाक बना कर रख दिया। आदिवासी स्वायत्ता को बचाने के लिए नेहरू ने पंचशील की नीति लागू की लेकिन वह भी जल्दी ही दरकिनार कर दी गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में जो आबकारी नीति बनाई उसकी भी आज धज्जियां उड़ रही हैं और आज बाहरी शराब की दुकानें धड़ल्ले से आदिवासी इलाकों में चल रही हैं।
इसी तरह आदिवासी स्वशासन के लिए भूरिया कमेटी की रपट लागू होने का इंतजार करती रही और जब 1996 में पेसा कानून बना तो काफी उम्मीद जगी। पेसा कानून के तहत हर ग्राम सभा को अपनी परंपरा, सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया और यह भी माना गया कि वह विवादों का निपटारा अपने पारंपरिक तरीके से कर सकेगी। पेसा कानून ने आदिवासी इलाकों में अद्भुत उत्साह का संचार किया था। नारा लगा मावा नाटे मावा राज यानी हमारे गांव में हमारा राज। लोकसभा से ऊंची ग्राम सभा। जगह जगह जश्न मनाए जाने लगे और तमाम नेता व अफसर पूछने लगे कि अब हमारी क्या जरूरत रह जाएगी ?  पर बाद में यह कह कर उस कानून को बेकार कर दिया गया कि यह एक केंद्रीय कानून है और संविधान का हिस्सा नहीं, इसलिए इसे ज्यादा दूर तक नहीं खींचा जा सकता। विडंबना देखिए कि आज कभी एनसीटीसी, तो कभी लोकपाल के नाम पर स्वायत्तता का नारा बुलंद कर रहे राज्यों के मुख्यमंत्री कहीं भी आदिवासी स्वायत्तता की मांग नहीं कर रहे हैं। न तो उन्हें पेसा कानून के तहत स्वायत्तता प्राप्त ग्राम सभा पसंद है, न ही पांचवी अनुसूची का मजबूत होना। इस बारे में भारत को राज्यों का संघ बताने वाले तमाम संविधानविद भी खामोश हैं। आखिर यह कैसी स्वायत्तता है जहां देश के मूल जनों के लिए सम्मान ही नहीं है?   
दरअसल हमारा संविधान आदिवासियों की सोच और उनकी संस्कृति को ध्यान में रखकर बनाया ही नहीं गया है। यही वजह है कि आजादी के 65 वर्षों के बाद जब देश की तमाम जातियां फल फूल रही हैं, तब वे अपने ही देश में अस्तित्व के लिए एक प्रकार का युद्ध लड़ रहे हैं। उनका यह युद्ध बड़ी पूंजी के हित के लिए काम कर रही अपनी सरकारों से है और इस लड़ाई में आज भले माओवादी उनके साथ हैं लेकिन हकीकत में वे भी उनके साथ लंबी दूरी तक नहीं रहने वाले हैं। उन्होंने  तो आदिवासी इलाकों को माओवादी विचारों की प्रयोगशाला रखा है जिसे आदिवासी न तो समझता है न ही उस पर लंबे समय तक चलना चाहता है। लेकिन इस बात को समझते हुए भी न समझने में ही हमारी राजनीति की भलाई है। क्योंकि वह अगर आदिवासियों को माओवादियों से अलग कर देगी तो संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति में सफल नहीं हो पाएगी।
भारतीय संविधान और राजनीतिक प्रणाली की इसी विडंबना को महसूस करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकर रामचंद्र गुहा भी कहते हैं कि आदिवासियों को अपना आंबेडकर चाहिए। जाहिर सी बात है कि अगर पहले वाले और दलितों के लिए लड़ने वाले आंबेडकर से काम चलता तो वे वैसा न कहते। उन्हें वैसा नेता और विव्दान चाहिए जो या तो संविधान को उनके लिए लिखे या फिर उसमें उनके लिए अहम स्थान बनवाए। वैसा व्यक्ति उनके भीतर का होगा या बाहर का यह तो समय बताएगा। लेकिन उसकी निष्ठा कम से कम इस आधुनिकतावादी सभ्य समाज के प्रति नहीं होनी चाहिए। अगर वैसी होगी तो वह उनके साथ उसी तरह न्याय नहीं कर पाएगा जैसा आंबेडकर सहित हमारे स्वाधीनता संग्राम के तमाम नेता नहीं कर पाए। जाहिर है आदिवासियों का संघर्ष उस सोच पर गहरे सवाल खड़ा करता है जो संविधान को सबसे पवित्र दस्तावेज मानते हुए उसकी रक्षा की सौगंध लेते हैं। देश और आदिवासी समाज के हित में हमें यह बदलाव करने होंगे और इसमें वेरियर एल्विन और बीडी शर्मा जैसे अध्येताओं और सिद्धांतकारों के उन विचारों का भारी योगदान होगा जो उन्होंने मुख्यधारा से हटकर आदिवासियों के साथ खड़े होकर तैयार किए हैं।




  




एटमी पाखंड के दौर में




अरुण कुमार त्रिपाठी




डा राममनोहर लोहिया ने कहा था कि बीसवीं सदी की दो बड़ी उपलब्धियां हैं। एक एटम बम और दूसरा महात्मा गांधी। सदी के अंत तक दोनों में से एक ही बचेगा। लेकिन विडंबना देखिए कि इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत जाने के बाद भी दुनिया में दोनों बचे हुए हैं। यही इस दौर का सबसे बड़ा पाखंड है। हम एटम बम भी बनाते हैं और समय समय पर महात्मा गांधी को भी याद कर लेते हैं। इसके लिए वह समय उतना दोषी नहीं है जब इन दो विचारों का आविष्कार हो रहा था। इसके लिए वह समय ज्यादा दोषी है जब मानव सभ्यता के लिए दोनों की अहमियत शीशे की तरह साफ हो चुकी है। महात्मा गांधी और उनका अहिंसा का दर्शन उस समय पैदा हुआ था जब मानव सभ्यता विश्व युद्ध के रूप में अपने जीवन से सबसे विनाशकारी दौर से गुजर रही थी। गांधी ने दोनों विश्वयुद्धों को देखने के बाद अपने अहिंसा के सिद्धांत में दृढ़ता प्रकट की थी। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा की थी और दूसरे विश्वयुद्ध में अपने देश की आजादी के लिए उनके खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ दिया था। संयोग से वे उस समय जीवित थे अमेरिका ने जापान से हिरोशिमा और नागासाकी नाम के शहरों पर पहली बार परमाणु बम का हमला किया था। अगस्त 1945 में हुए उस हमले के बाद महात्मा गांधी की टिप्पणी थी-----जब मैंने पहली बार सुना एटम बम ने हिरोशिमा को मिटा दिया है तो मेरे शरीर में कोई हरकत ही नहीं हुई। उल्टे मैंने खुद से कहा—अब अगर दुनिया अहिंसा को नहीं अपनाती तो मानव जाति की खुदकुशी सुनिश्चित है।
विडंबना है कि आज महात्मा गांधी का हवाला देते हुए एटमी निरस्त्रीकरण के प्रयास भी किए जाते हैं और एटम बम बनाने के भी। यही वजह है कि उस समय की तुलना में एटमी हथियारों का जखीरा हजारों गुना हो चुका है जब उनका नाम नहीं लिया जाता था। इस पाखंड में पूरी दुनिया के साथ गांधी का देश भारत भी शामिल है , फर्क यही है कि भारत गांधी का नाम कुछ ज्यादा जोर से लेता है। हमारी सरकार एक तरफ कुदनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ आंदोलन कर रही जनता को चौतरफा घेर कर उनका दमन करती है तो दूसरी तरफ नाभिकीय हथियारों से सुसज्जित पनडुब्बी आईएनएस चक्र के सफल जलावतरण के बाद अग्नि-5 का सफल परीक्षण करती है। यह सभी हमारे लिए जश्न के विषय हैं। कहीं प्रशासन के लिए तो कहीं वैज्ञानिकों के लिए। बधाइयां दी जाती हैं मिठाइयां बांटी जाती हैं। दावा किया जाता है कि हमारी एटमी मिसाइल की जद में अब चीन की राजधानी पेईचिंग ही नहीं यूरोप भी आ गया है। अपने को पहले से अधिक सुरक्षित और पड़ोसी को पहले से ज्यादा असुरक्षित बताने वाला यह आत्मविश्वास उस समय फुस्स हो जाता है जब बताया जाता है कि हमारी मिसाइल की मारक क्षमता महज पांच हजार किलोमीटर (जो अपने में कम नहीं है) जबकि पाकिस्तान और चीन की क्षमताएं तो दस हजार से भी ऊपर हैं। तकनीकी शब्दावली में बताया जाता है कि अरे यह तो आईसीबीएम यानी अंतरमहाव्दीपीय नहीं मध्यम रेंज की मिसाइल है। फिर इस फिसलते आत्मविश्वास को रोकने के लिए दावा किया जाता है कि हमारी अगली पीढ़ी की मिसाइल वही होगी। आखिर हम अग्नि-1 की 700 किलोमीटर की क्षमता से अग्नि-5 में पांच हजार किलोमीटर तक आए तो हैं।
एटमी पाखंड का यह माहौल एक देश से दूसरे देश, एटमी हथियारों वाले देश से लेकर गैर एटमी हथियारों वाले देशों और राष्ट्रीय संस्थाओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तक फैला हुआ है। यह वैसा ही सिलसिला है जैसे जातिवाद को खत्म करते करते तमाम जातियां जातिवादी हो जाती हैं और उन्हीं जातियों की तरह आचरण करने लगती हैं जिनके खिलाफ वे आंदोलन करती हैं। या फिर सांप्रदायिकता को मिटाने के बहाने तमाम समुदाय उन्हीं की तरह सांप्रदायिक हो जाते हैं जिनके खिलाफ वे जंग लड़ने का एलान करते हैं। या कुछ वैसा ही होता है जैसे रंगभेद से लड़ने का दावा करने वाली राष्ट्रीयताएं गोरों की ही संस्कृति और व्यवस्था अपना लेती हैं।
दुनिया के पांच परमाणु हथियार संपन्न देशों के एटमी पाखंड से लड़ते लड़ते भारत ने पहले 1975  फिर 1998 में परमाणु विस्फोट कर अपने दोहरेपन को प्रदर्शित किया और बाद में 2009 में अमेरिका से परमाणु करार कर एक चक्र पूरा कर दिया। उसके बाद दुनिया में भारत के परमाणु हथियारों को सुरक्षित मानना, इजराइल के डिमोना संयंत्र की चर्चा न करना और उत्तरी कोरिया और ईरान पर दुनिया भर में शोर मचाने की अंतरराष्ट्रीय राजनीति शुरू हो गई है। उसी नजरिए का नतीजा है कि उत्तर कोरिया ने जो उपग्रह 13 अप्रैल को छोड़े जाने के बाद ही हिर पड़ा उस पर काफी हल्ला मचा था और भारत के सफल मिसाइल परीक्षण को ज्यादा तूल नहीं दिया गया। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि मोदाराकी बनूनू नाम के जिस इजराइली ने अपने देश के डिमोना नाभिकीय संयंत्र का चित्र लेकर प्रकाशित करना चाहा उसे देशद्रोही बताकर जेल में ठूंस दिया गया। जबकि इजराइल अपने को लोकतांत्रिक देश होने का दावा करता है।
उधर अपने परमाणु कार्यक्रम के कारण चौतरफा दबावों में घिरा ईरान लगातार पांच एटमी देशों के पाखंड को उजागर करता रहता है। वह साफ तौर पर पूछता है कि आखिर फ्रांस औक ब्रिटेन को एटमी हथियारों की क्या जरूरत है। उनकी सुरक्षा को किससे खतरा है। वह अमेरिका की कथनी और करनी के फर्क को जाहिर करता है। परमाणु हथियार वाले देशों के इस पाखंड की एटमी अप्रसार संधि के बाकी हस्ताक्षरी देश भी समय समय पर आलोचना करते रहते हैं। ब्राजील के नेतृत्व मे काम करने वाले सात देशों के न्यू एजेंडा कोएलिशन का कहना है कि एनपीटी के कारण अप्रसार भले रुका है लेकिन निरस्त्रीकरण संभव नहीं हो पा रहा है।
दरअसल दुनिया एलएस़डी और एमएसडी जैसे दो सिद्धांतों के बीच फंसी है। संयुक्त राष्ट्र की आईसीजे जैसी संस्था भी तमाम देशों की तरह लाजिक आफ सेल्फ डिटरेंस के सिद्धांत में यकीन करती है। यानी हथियारों का एटमी जखीरा जमा करते जाने वाले देश एक दूसरे पर हमले नहीं करते। आखिर अगस्त 1945 के बाद दुनिया पर कहां एटमी हमला हुआ। दूसरी तरफ म्यूचुअल सेल्फ डिस्ट्रैक्शन का सिद्धांत है जिस पर अमेरिका और रूस चल रहे हैं। यह सिलसिला दो दशक पहले शुरू हुआ था और अब नए संदर्भ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच चल रहा है। एक तरफ अमेरिका के तमाम विशेषज्ञ कहते हैं कि स्टार्ट नाम की यह संधि तो रूस के पक्ष में झुकी हुई है तो दूसरी तरफ ओबामा मानते हैं कि अमेरिका भी संधि की भावना पर खरा नहीं उतरा है। अमेरिका के पास 1950 एटमी मिसाइलें बताई जाती हैं तो रूस के पास 2430।
एलएसडी और एमएसडी के बीच फंसी दुनिया में उन देशों का भी पक्ष है जिन्हें एटमी मिसाइलों की सुरक्षा छतरी मिली हुई है। ऐसे देशों की संख्या करीब 30 है। वे नहीं चाहते कि यह सुरक्षा कम हो क्योंकि एक तरफ दुनिया में एटमी आतंकवाद का खतरा है तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय टकराव अभी भी खत्म नहीं हुए हैं। दुनिया के संसाधनों को लूटने की साम्राज्यवादी प्रवृति क्षेत्रीय टकराव को खत्म नहीं होने देना चाहती और आतंकवाद के लिए नया माहौल बनाती है। इसी हकीकत और पाखंड के बीच वैश्विक संस्थाओं की अहमियत और वैश्विक स्तर पर एटमी हथियारों और ऊर्जा के खिलाफ समझ और आंदोलन की अहमियत बढ़ रही है। जहां अमेरिका एटमी हथियार घटाने का वादा कर रहा है और बी-53 जैसे परमाणु बम को समाप्त किया है वहीं एटमी प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण भी कर रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि आधुनिकीकृत हथियारों के खतरे पहले से ज्यादा बड़े हैं।
यहीं पर महात्मा गांधी का वह कथन फिर मौजूं हो जाता है जो उन्होंने नागासाकी हिरोशिमा के बाद कहा था---
परमाणु बम की इस बिकराल त्रासदी की उचित अर्थ यही है कि इसे उसी तरह जवाबी बम से नहीं खत्म किया जा सकता जिस तरह हिंसा को प्रति हिंसा से नहीं मिटाया जा सकता। मनुष्य जाति को सिर्फ अहिंसा के माध्यम से हिंसा के चक्र से बाहर आना होगा। हिंसा को सिर्फ प्रेम से जीता जा सकता है। जवाबी घृणा न सिर्फ घृणा की सतह  बल्कि उसकी गहराई को भी बढ़ाती है।
भारत आजाद होने के कुछ महीने बाद 16 नवंबर 1947 को फिर वे फिर कहते हैं ---
एटम बम के इस युग में विशुद्ध अहिंसा ही हिंसा की चालाकियों को नाकाम कर सकती है।
हम एटमी पाखंड के युग में जरूर हैं लेकिन पाखंड में थोड़ा बहुत आदर्श होता है। उम्मीद की जाती है वह आदर्श बढ़ेगा, गांधी बचेंगे और बम मिटेगा।        
    

Saturday, March 3, 2012

भ्रष्टाचार के कृपानिधान


बंबई हाईकोर्ट के आदेश के बाद छापे और गिरफ्तारी का आसन्न संकट ङोल रहे कृपाशंकर सिंह एक व्यक्ति नहीं परिघटना हैं। उनका जाल मुंबई से महाराष्ट्र और झारखंड से यूपी के जाैनपुर तक फैला हुआ है। इसमें स्याह और सफेद राजनीति के खिलाड़ियों से लेकर कालेधन के तमाम कारोबारी शामिल हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार के तहत जो बेहिसाब संपत्तियां बनाई हैं उन पर पड़ने वाले छापे एक सीमा से आगे नहीं जा सकते। क्योंकि उससे आगे जाने का मतलब है भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे और कांग्रेसी नेता विलास राव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे सभी पर गाज गिरना। कृपाशंकर सिंह भ्रष्टाचार की उसी लीक पर चल रहे हैं जो महाराष्ट्र और देश के अन्य बड़े नेताओं ने बनाई है। सरकारी पदों का इस्तेमाल करते हुए पार्टी और परिवार के लिए धन इकट्ठा करना और फिर इधर से उधर हस्तांतरित करना मौजूदा राजनीति की खास कार्यशैली है। इसमें कालेधन को सफेद करना और सरकारी धन को अपना समझने की सार्वभौमिक प्रवृत्ति पाई जाती है। कृपाशंकर सिंह चूंकि बेहद सामान्य स्थिति से राजनीति में आगे बढ़े थे, इसलिए उन्होंने इस काम को कुछ ज्यादा और तेजी से किया। उन्होंने मुंबई में बीएमडब्ल्यू कारों से लेकर धन और विलासिता का ऐसा कारोबार खड़ा किया कि दिल्ली से आने वाला कोई भी बड़ा नेता उनके सत्कार से असंतुष्ट न हो। पर उनकी दिक्कत यह रही कि एक उत्तर भारतीय (जाैनपुरिया)होने के कारण उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी जगह बनाई। एक मामूली सब्जी विक्रेता से महाराष्ट्र के गृह राज्यमंत्री और मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष का पद हासिल करना कोई आसान काम नहीं था। इसके लिए उन्होंने पहले उत्तर भारतीयों को रिझाया और उनके नेता बने। बाद में मराठियों का भी विश्वास जीता और उनकी मदद से महाराष्ट्र की राजनीति में दोनों पैरों पर खड़े हो गए। वे जितनी कुशलता से भोजपुरी और हिंदी बोलते हैं उतनी ही कुशलता से मराठी भी। लेकिन मराठी और भैया लोगों की खिचड़ी बनाकर जो उन्होंने राजनीति की, उसे असली ताकत मिली दिल्ली दरबार से। दिल्ली दरबार और कांग्रेस हाईकमान में लंबी पहुंच होने के चलते वे असरदार बने और इसी के चलते बाद में राज्य की विलास राव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और पृथ्वीराज चव्हाण जैसे नेताओं की मराठी राजनीति ने उनका पत्ता साफ करना शुरू कर दिया। आरटीआई तो एक बहाना है असली खेल मुंबई कांग्रेस के तीन गुटों की खींचतान से निकला है। एक तरफ मुरली देवड़ा, दूसरी तरफ गुरदास कामथ और तीसरी तरफ कृपाशंकर सिंह का गुट है। लगता है अब दोनों गुट मिलकर कृपाशंकर सिंह को निपटाने में लग गए हैं। मजेदार बात यह है कि दो मराठी गुटों ने मिलकर संजय तिवारी नाम के एक पूरबिया का इस्तेमाल करते हुए यह पूरा खेल रचा है। शायद यह दोनों गुट कृपाशंकर को राजनीतिक तौर पर पछाड़ नहीं पा रहे थे, इसलिए वकीलों के समूह के प्रतिनिधि और आरटीआई कार्यकर्ता संजय तिवारी की मदद ली गई। कृपाशंकर सिंह अनजान रहे और अब उनके खिलाफ उत्तर प्रदेश, झारखंड, मुंबई और दूसरी जगहों से इतने तथ्य इकट्ठा हो गए हैं कि उनकी राजनीति डांवाडोल हो रही है। उनका बेटा नरेंद्र मोहन टूजी घोटाले में फंसा हुआ है। उनके समधी और झारखंड के कांग्रेसी नेता कमलेश सिंह मधुकौड़ा के साथ 4000 करोड़ का भ्रष्टाचार करने के आरोप में जेल में हैं। कृपाशंकर सिंह कहते हैं कि उनका राजनीतिक कैरियर खत्म करने के लिए उन्हें फंसाया गया है। उनका कहना है कि वे कानूनी तौर पर लड़ेंगे और जीतेंगे भी क्योंकि वे अपराधी नहीं हैं। उनके समर्थकों का यह भी कहना है कि जिस संजय तिवारी की जनहित याचिका को हाई कोर्ट ने एफआईआर बताते हुए कार्रवाई करने का आदेश दिया है, वह दरअसल उनसे मुंबई महानगर निगम का टिकट चाहता था ताकि वह किसी को दस लाख में बेच सके। जब उन्होंने उनकी मदद नहीं की तो वह उनके पीछे पड़ गया। पर कृपाशंकर सिंह दूध के धुले होते तो बात यहां तक नहीं पहुंचती। उनका नाम भले शंकर की कृपा होने का दावा करता है लेकिन हकीकत में वे राजनीति और भ्रष्टाचार के अर्धनारीश्वर हैं। भ्रष्टाचार विरोधी इकाई ने अपने छापे में उनकी तमाम संपत्तियां, कई बीएमडब्ल्यू कारें और बैंक खाते वगैरह उजागर किए हैं। सन 2008-2009 के बीच कृपाशंकर सिंह की पत्नी मालती देवी के कई बैंक खातों में 65 करोड़ का लेनदेन हुआ है। वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं। एक घरेलू धार्मिक महिला हैं। पूजा पाठ करती हैं और पति का कारोबार कामयाबी के शिखर पर पहुंच यही ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। उनकी प्रार्थना सुनी भी गई, लेकिन उन्होंने सत और असत की भीतरी आवाज नहीं सुनी, इसलिए आज उनकी प्रार्थना उल्टी पड़ गई है। उनके बेटे नरेंद्र मोहन और बहू अंकिता के समता सहकारी बैंक स्थित खाते में टू जी घोटाले के आरोपी शाहिद बलवा की कंपनी डीबी रियल्टी ने 2008-09 के दौरान 4.5 करोड़ रुपए जमा कराए हैं। पर कृपाशंकर सिंह की धोखाधड़ी के इतने ही मामले नहीं हैं। उन्होंने 2004 और 2009 के विधानसभा चुनावों में अपने दो पैन नंबर दिखाए थे। दोनों के नंबर अलग-अलग हैं और इसका पता राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के एक उम्मीदवार गेनू मोर ने लगाया है। लेकिन उनके झूठ और गोरखधंधे की सीमा यहीं समाप्त नहीं होती। पहले वे अपने को ग्रेजुएट होने का दावा करते थे। बाद में वह सही नहीं निकला। फिर उन्होंने 1966 में हाई स्कूल और 1969 में इंटरमीडिएट करने का दावा किया। लेकिन हाल में संजय तिवारी ने आरटीआई के माध्यम से यह ढूंढ कर निकाला कि वे हायर सेकंडरी इंतहान में फेल हो चुके हैं। कृपाशंकर सिंह फेल हुए हैं या पास यह तो समय ही बताएगा। लेकिन उन्होंने जिस राजनीति की लंबी यात्र तय की है उसमें वे कई बार पास जरूर हुए हैं। सन 2004 और सन 2009 में कांग्रेस पार्टी की जीत में उनका योगदान रहा है। उन्होंने शिवसेना और भाजपा को धूल चटाने में अहम भूमिका निभाई है। आज भी बृहन्न मुंबई नगरपालिका में कांग्रेस को जो सीटें मिली हैं उनमें भी उनकी भू्मिका रही है। पार्टी उनकी राजनीतिक अहमियत को जानती है। हालांकि पहले उन्होंने पूरबिया लोगों के किनारा किया और अब लोग उनसे कर रहे हैं। भ्रष्टाचार में उनके फंसने से हर किसी को खुशी ही होनी चाहिए और उनके कई खास भी खुश हो रहे हैं। लेकिन सवाल यही है कि पार्टी की भीतरी गुटबाजी से चले आरटीआई के इस तीर से घायल कृपाशंकर सिंह निपट भी गए तो क्या हमारी राजनीति और विशेषकर कांग्रेस की राजनीति अपनी सफाई कर पाएगी?

Tuesday, January 24, 2012

जाति और डेरों का लोकतंत्र

यह जानकार हैरानी होती है कि पंजाब के ज्यादातर राजनेता चुनावी वैतरणी पार करने के लिए डेराओं के चक्कर लगा रहे हैं। सबसे ज्यादा भीड़ डेरा सच्च सौदा के बाबा गुरमीत राम रहीम के यहां हो रही है। हाल ही में कांग्रेस की नेता परनीत कौर और रनिंदर सिंह ने बाबा से मुलाकात की है। बाबा के प्रमुख लोगों की समिति पंजाब विधानसभा के चुनावों में अपनी भूमिका तय करने के लिए बैठक कर रही है और जैसा कि संकेत मिले हैं कि उनके असर को देखते हुए वे आगामी 30 तारीख को किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं। पंजाब में बाबा के पचास लाख अनुयायी बताए जाते हैं और उनका राज्य की 117 में से 55 विधानसभा सीटों पर जोर और अन्य 30 सीटों पर असर बताया जाता है। इनमें कई क्षेत्र राज्य के 67 सीटों वाले मालवा क्षेत्र में पड़ते हैं। पंजाब से सटे हरियाणा के सिरसा में डेरा सच्च सौदा का आश्रम चलाने वाले बाबा राम रहीम वही हैं जिन पर अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार और अन्य आपराधिक मामले हैं और उनकी भूमिका पर पारंपरिक और अनुदार सिख पंथ को कड़ी आपत्तियां हैं, जिसके चलते दंगे वगैरह भी हो चुके हैं। शायद इसीलिए उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी डेरा सच्च सौदा के लोग शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के हितों की रक्षा करने वाले शिरोमणि अकाली दल को उसी तरह से झटका देंगे जैसा उन्होंने 2007 के चुनावों में दिया था। यानी उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है और हो सकता है जल्दी ही इस बारे में कोई परोक्ष या प्रत्यक्ष बयान भी आ जाए। यही स्थिति पंजाब के अन्य डेरों की भी है। पंजाब के तमाम डेरों में राजनीतिक दलों की भीड़ बढ़ती जा रही है। डेरा सच्च सौदा ही नहीं संत रविदास के आदर्शो पर बना डेरा सचखंड, आशुतोष महाराज का दिव्य ज्योति संस्थान, रोपड़ का बाबा भनियारेवाला और अन्य डेरों में राजनीतिक दल समर्थन मांगने और उनके मुद्दों को महत्व देने के लिए दौड़ रहे हैं। निरंकारियों का अपना दायरा है। यानी मध्ययुगीन डेरों के आगे आधुनिक राजसत्ता नतमस्तक हो रही है ताकि वह अपने लिए पर्याप्त ताकत बटोर सके। दरअसल आधुनिक लोकतंत्र जिन दबाव समूहों के संगठनों के माध्यम से अपने को चलाना चाहता था, उसका कोई आधुनिक स्वरूप विकसित करने में वह विफल रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के ट्रेड यूनियनों और कर्मचारी संगठनों या किसान संगठनों के पास जाने की खबरें कम आती हैं। या तो डेरा में माथा टेकने की खबरें आती हैं या गुरुद्वारों में। उसी तरह से उत्तर प्रदेश की पार्टियां विभिन्न जातिगत संगठनों के पास दौड़ती नजर आती हैं। उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के संगठन हैं जरूर पर उतने व्यवस्थित नहीं हैं जितने पंजाब वगैरह में। यही वजह है कि वहां राजनीति करने के लिए कई जाति के संगठन खड़े किए गए हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि वहां जातिविरोधी आंदोलन लगातार उतना शक्तिशाली नहीं रहा जितना पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में। आज जब उसका बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से एक आक्रामक राजनीतिक स्वरूप उभरा है तो वह अपने को सामाजिक स्तर पर भी गोलबंद कर रहा है।ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि पंजाब के भीतर राजनीति ने धर्म के साथ घालमेल किया है और वहां चाहे अकाली दल हो या कांग्रेस दोनों धर्मनिरपेक्ष राजनीति के मूल्यों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। अकाली दल की राजनीति तो कभी धर्म और उसके संस्थानों से अलग हो ही नहीं पाई लेकिन कांग्रेस की भी मजबूरी उन्हीं धार्मिक संस्थानों के भीतर राजनीति करने की है जिनकोवह अपने सिद्धांत के विरुद्ध मानती है। तो क्या मान लिया जाए कि 62 गणतंत्र दिवस और 65 स्वाधीनता दिवस देखने के बाद वह वैसी नहीं हो सकी है जैसी उससे अपेक्षा थी? भारतीय राजनीति की इन्हीं आशंकाओं को संविधान निर्माता डा भीमराव आंबेडकर ने अपने ढंग से व्यक्त किया था। उनका कहना था कि अगर समाज में समानता नहीं होगी तो इस लोकतंत्र में तमाम तरह की विकृतियां पैदा होंगी और संविधान का बार-बार उल्लंघन होगा। चाहे पंजाब के डेरे हों या उत्तर प्रदेश के जाति संगठन या कर्नाटक के लिंगायत मठ, इनकी भूमिका इसलिए बढ़ी है क्योंकि समाज में असमानता बरकरार है और राजनीतिक दल उसे दूर करने में उस तेजी से सफल नहीं हो पा रहे हैं जैसे होना चाहिए। पंजाब के डेरे एक तरह से गुरुद्वारों पर काबिज जाट सिखों के वर्चस्व के विरुद्ध एक चुनौती हैं। बाबा राम रहीम के ज्यादातर अनुयायी दलित और छोटी जातियों से संबंधित हैं। इन जातियों ने कभी कांग्रेस के साथ अपना गठजोड़ बनाया था लेकिन उनसे अपेक्षा पूरी न होते देख अपने धार्मिक और सामाजिक संगठनों को मजबूत करने पर जोर दिया। यह विडंबना है कि जिस हिंदू धर्म की जातिगत असमानता और अन्य बुराइयों से ऊब कर सिख धर्म निकला था वह अपने उन आदर्शो पर खरा नहीं उतरा। पंजाब में दलित सिखों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी उन्हें अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि उन्होंने अपने डेरों के माध्यम से जातिगत वर्चस्व को चुनौती दी है और आज भी वे धरम, रविदासी और रामदासी जैसे तमाम समुदायों से अपनी पहचान बनाते हैं। मालवा में सिख धर्म को दलितों ने बड़ी संख्या में अपनाया था। जबकि दोआबा के दलितों ने वैसा नहीं किया। उधर माझा इलाके में रामदासी और रविदासी समुदायों का जोर है। असमानता और उपेक्षा से उत्पन्न उनकी पीड़ा है और उसके खिलाफ नाराजगी व्यक्त करने के अपने तरीके हैं। इसी नाराजगी को व्यक्त होने और बराबरी आने से रोकने के लिए सवर्ण समाज भी धर्म का ही सहारा लेता है। अगर उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों के उभार के समय भाजपा ने मंदिर आंदोलन चलाकर उन्हें रोकना चाहा तो पंजाब में अकाली और पारंपरिक तौर पर अनुदार सिख डेरों के खिलाफ आक्रामक होते रहते हैं। लेकिन डेरों ने समाज के महज असमानता के खिलाफ पंथीय गोलबंदी ही नहीं की है बल्कि समाज की अन्य बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई है। आज पंजाब के 40 से 60 प्रतिशत युवक नशे के शिकार हैं। अक्सर डेरों में घरों की महिलाएं रोती हुई यह अपील करने पहुंचती हैं कि उनके बेटे या पति को नशे से बचाया जाए। डेरे वाले नशे से बचने की अपील जारी भी करते हैं। पंजाब की दूसरी बड़ी समस्या जमीन का क्षरण है। वहां की मिट्टी की उर्वरता न सिर्फ खोती जा रही है बल्कि कई इलाकों का पानी जहरीला होता जा रहा है। डेरों की चिंता में पर्यावरण के यह सवाल शामिल हैं। उमेंद्र दत्त जैसे लोगों की अगुआई में खेती बिरासत मिशन भी इस दशा को सुधारने के लिए प्रयासरत है। पूंजीवाद के साथ मिलकर चलने वाले राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने और शासन चलाने के लक्ष्य पर अपने को केंद्रित किया लेकिन वे सामाजिक बदलाव और पर्यावरण जैसे मुद्दो को छोड़ रखा है। डेरे वाले उसी खाली जमीन को भर रहे हैं। अब कोई उन्हें धर्म में राजनीति का घालमेल कहे तो कहता रहे। भारतीय राजनीति की विविधता का यही रंग है।

Thursday, January 5, 2012

सेनापति पर विवाद ठीक नहीं


नाम में क्या रखा है? रोमियो से कहा गया जूलियट का यह संवाद वहां ठीक है जहां प्रेम का सवाल हो, लेकिन जहां कैरियर और सत्ता का सवाल हो वहां नाम में भी बहुत कुछ रखा है और जन्मतिथि में तो उससे भी ज्यादा है। रायसीना की पहाड़ियों पर स्थित भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान का साउथ ब्लाक इन दिनों जन्मतिथि के एक महत्वपूर्ण विवाद में घिर गया है। और यह विवाद किसी सामान्य व्यक्ति का नहीं भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वीके सिंह का है। जनरल वीके सिंह कह रहे हैं कि उनका जन्म 10 मई 1951 को हुआ और रक्षा मंत्रलय के रिकार्ड कह रहे हैं कि वह 10 मई 1950 को हुआ। रक्षा मंत्री एके एंटनी उनके दावे को कम से कम दो बार खारिज कर चुके हैं और अब जबकि मंत्रलय के रिकार्ड के अनुसार इस साल मई में उनके रिटायर होने का समय आ रहा है तो विवाद और तेज उठ गया है।

उसने रक्षा मंत्रलय और सेना के बीच ही नहीं सेना के दो विभागों के बीच एक तरह की खींचतान की स्थिति पैदा कर रखी है। विवाद इतना गंभीर है कि एक दिन पहले इस मसले पर प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने रक्षामंत्री एके एंटनी से आधे घंटे बात की। इस बीच पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने रक्षामंत्री को पत्र लिखकर इस मामले को वीके सिंह के पक्ष में निपटाने की अपील की है। उनका कहना है कि यह सारा विवाद पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर का खड़ा किया हुआ है, वे जनरल विक्रम सिंह को सेना प्रमुख बनवाना चाहते थे इसलिए उन्होंने सेना के दो विभागों के रिकार्ड में उनकी दो तरह की जन्मतिथि लिखवाई। वेतन, भत्ते से संबंधित एडजन्टैंट जनरल ब्रांच में वीके सिंह का जन्मवर्ष 1951 और पोस्टिंग प्रमोशन देखने वाली शाखा मिलिट्री सेक्रेटरी ब्रांच में 1950 लिखा हुआ है। सूचना के अधिकार के माध्यम से यह विवाद उसी तरह सामने आया है जिस तरह कुछ महीने पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और गृहमंत्री पी चिदंबरम का विवाद सामने आया था। और जनरल वीके सिंह के खंडन के बावजूद इस मामले के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने और विवाद के सार्वजनिक होने की आशंका समाप्त नहीं हुई है। वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर एक जनहित याचिका दायर हो चुकी है कि उनकी जन्मतिथि निर्धारित की जाए।

अगर सरकार की तरफ से वीके सिंह के पक्ष में विवाद का सम्यक समाधान नहीं हुआ तो उनके सामने सश बल पंचाट या सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला है। लेकिन भारतीय सेना के मौजूदा प्रमुख का अपनी सेवा शर्तो के विवाद को न्यायालय में ले जाने का मतलब है सरकार की वैधानिकता को चुनौती देना। इस चुनौती से न सिर्फ सेना के मनोबल पर असर पड़ता है बल्कि उस सरकार का इकबाल और भी कमजोर होता है जो पहले से तमाम तरह के घोटालों में फंस कर लड़खड़ा रही है। संभवत: सेना का ख्याल रखते हुए ही अमरिंदर सिंह ने रक्षामंत्री को लिखे पत्र में देश के 11.3 लाख सैनिकों के मनोबल का सवाल उठाया है। वे जनरल वीके सिंह से निजी तौर पर भी जुड़े हो सकते हैं और अपने विधानसभा चुनाव में उतर चुके पंजाब के लाखों सैनिक परिवारों का भी ख्याल कर रहे हो सकते हैं।

वजह जो भी हो पर रक्षा मंत्रलय और सेना के बीच इस तरह की शीर्ष स्तर की खींचतान न तो देश के लोकतंत्र के लिए शुभ है न ही देश की सुरक्षा के लिए। भारतीय लोकतंत्र इस मायने में निश्चिंत रह सकता है कि वहां नागरिक प्रशासन ही श्रेष्ठ है और सेना उसी के तहत पूरे विश्वास से काम करती है। हमारे यहां पड़ोसी देशों की तरह सेना प्रमुख न तो नागरिक प्रशासन को चुनौती देते हैं न ही यहां पाकिस्तान की तरह मेमोगेट जैसा कोई खतरा है। इसी भावना को व्यक्त करते हुए जनरल वीके सिंह ने कहा है कि हमारा कार्यकाल तो सरकार ही तय करेगी और हमारा कोर्ट जाने का कोई इरादा नहीं है। इस बयान में उन्होंने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। लेकिन इसी के साथ उनका यह कहना कि हमारी जन्मतिथि को सरकार को नहीं बदल सकती, उनके दुखी मन को व्यक्त करता है। अब यह देखना लोकतांत्रिक सरकार और उसकी नौकरशाही का काम है कि जनरल वीके सिंह के साथ कोई अन्याय न हो।