जिम्मेदारी चाहिए, पाबंदी नहीं
अरुण कुमार त्रिपाठी
कुछ दिन पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव अतुल कुमार अनजान जब
एक गोष्ठी से क्रांतिकारी भाषण देकर निकले तो उन्हें पकड़ लिया। बताइए आखिर क्या
किया जाए ? जिस
आवारा पूंजी की शिकायत आप कर रहे हैं और राजनीति को जिसका शिकार बता रहे हैं उसका
शिकार मीडिया भी है बुद्धिजीवी भी हैं। भले कुछ बड़ी बात या बड़ा दर्शन नहीं निकल
रहा है, वह बहुत श्रेष्ठ रच नहीं पा रहा है लेकिन अभिव्यक्ति की सारी सीमाएं टूट
रही हैं और तमाम तरह के व्दार खुल गए हैं। जाति आधारित गाली गलौच मची हुई है। महज
नेता ही नहीं अहसिष्णु हो रहे हैं हमारा साहित्यिक समाज भी एक दूसरे के लिए बेहद
कटु और विभाजित है। विशेष कर जबसे अस्मिताओं की राजनीति शुरू हुई है तबसे सब
अपने-अपने हिस्से की इज्जत करते हैं कोई दूसरे की इज्जत करने को तैयार नहीं है। इस
पर अतुल अनजान का कहना था कि क्या करें भारतीय समाज ऐसा ही है। उनका यह वाक्य बहस
से पलायन भी था और सोच की गहराई में उतरने के लिए एक सीढ़ी भी। क्या सचमुच हमारा
मीडिया वैसा ही हो रहा है जैसा हमारा समाज है ? या मीडिया समाचारों
और विचारों की ऐसी संसद बन गई है जिसका सत्र अनवरत चल रहा है पर जहां कोई सत्ता
पक्ष नहीं है और न ही कोई स्पीकर है। सभी विपक्ष हैं और हर कोई किसी न किसी से
भिड़ा हुआ है। क्या यह मीडिया की बरबरीक ग्रंथि है जो जहां भी कोई हारने लगेगा उसी
की तरफ से लड़ने को तैयार हो जाएगा या यह उसका स्वार्थ है कि जहां कुछ मिलने वाला
होगा उसी तरफ होकर उसी की भाषा बोलने लगेगा।
मीडिया की तमाम कमियों के बावजूद उसका उसी तरह एक बहुलवादी रूप उभरा है
जैसा भारतीय समाज का है। जाहिर है बहुलवाद अगर जिम्मेदारी के साथ चले तो एक स्वस्थ
लोकतंत्र की तरफ जाता है और अगर गैर जिम्मेदारी से चले तो अराजकता की तरफ। यही वजह
कि मौजूदा मीडिया के इस स्वरूप में एक तरफ लोकतंत्र देखा जा रहा है तो दूसरी तरफ
अराजकतावाद। लोकतंत्र देखने वाले उसे संयम बरतने और आत्मनियंत्रण की सलाह दे रहे
हैं तो अराजकता की आहट देखने वाले चौतरफा पाबंदी का इंतजाम करने में लगे हैं। जब
प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ही नहीं न्यायमूर्ति एस एच
कपाडिया भी दिशानिर्दश की जरूरत महसूस करते हों तो जाहिर है कि मामला गंभीर है। वह
बहस हाल में संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी पर हुई हाल की श्रेष्ठतम बहस थी जो
न्यायमूर्ति कपाडिया की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ के सामने
17 दिनों तक हुई। उस बहस में संविधान के अनुच्छेद 19(1) और 21 आमने सामने खड़े हो
गए। इस बहस ने हमारे दोनों प्रेस आयोगों की सिफारिशों और प्रेस परिषद के सुझावों
से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की कठिन यात्रा की झलक पेश कर दी। यह भी कहा गया कि
पहले ही मीडिया पर पाबंदी लगाने के लिए इतने कानून हैं कि किसी नए कानून की क्या जरूरत
है ? इतना ही नहीं जब अनुच्छेद 19(2) स्वयं अपने ऊपर
आठ तरह के युक्तिसंगत प्रतिबंध लगा लेता है और उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए देश
में तमाम तरह के कानून बनाए गए हैं तो अब और क्या चाहिए? खास बात यह है कि इन नई तरह की पाबंदियों की बात
वे लोग कर रहे हैं जो कानून के गहरे जानकार हैं और रोज उसकी नई नई व्याख्या
प्रस्तुत करते रहते हैं।
इसलिए गड़बड़ी कहां है ? या तो उन कानूनों का
कोई कहीं ठीक से इस्तेमाल ही नहीं कर रहा है या फिर मीडिया इतना ताकतवर हो गया है
कि उसके सामने वे नाकारा हो गए हैं? दरअसल मीडिया के
मौजूदा रूप से वे ज्यादा परेशान हैं जिन्होंने उसे उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों
में पाल पोस कर बड़ा किया था। उन्हें उम्मीद थी कि वह उनका वफादार रहेगा और आखिर
तक उन्हीं की भाषा बोलेगा। वह एक हद तक उनकी बात का कायल भी रहा क्योंकि इक्कीसवीं
सदी का पहला दशक कुछ ऐसा रह जैसे मीडिया में समाचारों और विचारों के बारे में एक
महाआमसहमति बन गई हो। उसने मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और झुग्गी झोपड़ी वालों
की बात करनी बंद कर दी थी। इस दौरान उनके अधिकारों के दमन में मीडिया ने सहयोग भी
किया। लेकिन ढांचागत सुधार के बहाने विचारों और समाचारों पर लादी गई यह तानाशाही ज्यादा
समय तक चल नहीं पाई। वह नीतियों सभी लोगों क्या उनकी जरूरत पर भी खरी नहीं उतरीं
जो उस पर लट्टू हुए जा रहे थे। उनको जगह जगह से चुनौती मिलने लगी और उन नीतियों पर
चलने वालों से महाघोटाले उजागर होने लगे। लगा जैसे इन नीतियों के जरूरी अंग घोटाले
से ही बने हों। व्यवस्था को अप्रिय लगने वाली वे खबरें मीडिया के सीने पर सवार हो
गईं। वे कभी हाशिए पर रहने वाले समाज की हिंसा के माध्यम से आने लगीं तो कभी मुख्यधारा के मध्यवर्ग के अहिंसक
आंदोलन के तौर पर। इस बीच प्रौद्योगिकी को विकास ने मीडिया को वह नहीं रहने दिया
जो उसके बारे में सोचा गया था। वह सोशल मीडिया के रूप में इतना फैल गया कि बड़ी
पूंजी और बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों को ठेंगा दिखाने लगा। समाचारों और टिप्पणियों
का एकदम नया पर्यावरण बन गया जो किसी बंदिश को मानने को तैयार ही नहीं। जहां
फेसबुक और ट्विटर से लेकर विकीलीक्स तक जाने की आजादी है। वह आजादी जो इंसान के
दिलो दिमाग को तो छूती ही है और जो राजसत्ता का उपहास भी उड़ाती है। वह कभी किसी
बड़े नेता की आपत्तिजनक सीडी जारी करती है तो कभी किसी शिगूफे से सनसनी पैदा करती
है। पर एक बात जाहिर है कि अब कोई खबर रुक नहीं सकती। वह कहीं न कहीं तो आ ही
जाएगी। इसने बड़े लोगों में एक लाचारी पैदा की है। इससे वे भी हैरान हैं जिन्होंने
एक दौर में उसे पूंजी के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इसलिए अब वे
उसे राज्य के माध्यम से नियंत्रित करना चाह रहे हैं। राज्य के माध्यम से नियंत्रित
मीडिया वाले देश अभी भी दुनिया हैं। चीन
उसका बड़ा उदाहरण है। उसकी तरक्की हमें ललचाती है तो उसका मीडिया हमें डराता है। लेकिन
अराजक मीडिया भी हमें परेशान करता है। वह कहीं लोकतंत्र को जातियों, धर्मों और
अस्मिताओं के नए टकराव तंत्र में न बदल दे? उसमें उत्साही लोग
भी आए हैं और धंधेबाज लोगों की भी तादाद बढ़ी है। वह जनता के हित के बहाने चंद
लोगों के स्वार्थ साधने का औजार भी बना है। लेकिन यहां हम यह कह कर नहीं बच सकते
कि हमारा समाज जैसा है उसे वैसा ही मीडिया नसीब हुआ है। हमें अगर ज्यादा
लोकतांत्रिक समाज बनाना है तो उसके लिए आजादी भी चाहिए और जिम्मेदारी भी। क्योंकि
स्वतंत्रता स्वशासन से चलती है और स्वशासन अपने पर शासन करने का नाम है। मीडिया को
स्वशासन की लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। इस पर विमर्श करने का हक सभी को है लेकिन
पाबंदी लगाने का किसी को नहीं।
3 comments:
यह उसका स्वार्थ है कि जहां कुछ मिलने वाला होगा उसी तरफ होकर उसी की भाषा बोलने लगेगा।
मीडिया को कोसने से भी कुछ नहीं मिलने वाला। देश, समाज, संस्कृति और साहित्य पर निगाह डालें वहाँ क्या हो रहा है। बहरहाल अरुण जी आपने ब्लॉग शुरू किया अच्छा है। लिखते रहें।
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