Monday, June 11, 2012


डिंपल की जीत के मायने





अरुण कुमार त्रिपाठी
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और सपा उम्मीदवार डिंपल यादव ने जिस तरह से कन्नौज लोकसभा सीट से ऐतिहासिक जीत दर्ज की है उसके तीन संदेश हैं। जाहिर है यह परिवारवाद की प्रचंड विजय है और उसके आगे देश और प्रदेश के के सारे प्रमुख राजनीतिक दल नतमस्तक हैं। दूसरा संदेश है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का डंका बज रहा है और अब उसके आगे भाजपा और कांग्रेस क्या उसकी प्रमुख प्रतिव्दंव्दी बसपा भी आगे आकर अपनी भद नहीं कराना चाहती। इस जीत का एक तीसरा संदेश भी है कि मुलायम सिंह और उनके परिवार के प्रति उत्तर प्रदेश में एक व्यापक सदाशयता उभरी है और क्या वे उसका उपयोग किसी बड़े मकसद के लिए कर पाएंगे ? यह विडंबना है कि जिस प्रदेश में समाजवादियों ने नेहरू के परिवारवाद के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन छेड़ा और जिसकी विरासत पर मुलायम सिंह दावा कर रहे हैं वे स्वयं आज वहीं पहुंच गए हैं। जब अखिलेश यादव पहली बार राजनीति में आए और कन्नौज से परचा भर निकले तो पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। उनसे पूछा कि आप की पार्टी कांग्रेस के परिवारवाद का विरोध करती है लेकिन आप का राजनीति में आना क्या परिवारवाद नहीं है ? उन्हें शायद जबाव देर से सूझता और वह उतना सटीक नहीं भी हो सकता था लेकिन साथ खड़े जनेश्वर मिश्र ने अपनी सरल और संप्रेषणीय शैली में जवाब दिया कि वह सत्ता का परिवारवाद है और यह संघर्ष का। हालांकि वह कहने की बात थी और अब मुलायम सिंह का परिवारवाद भी सत्ता का ही हो गया है। पर यह विचित्र स्थिति है कि जब प्रदेश गांधी नेहरू के राष्ट्रीय परिवार से विमुख हो रहा है तब वह एक प्रादेशिक परिवार को अपना रहा है। हाल में विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता ने रायबरेली और अमेठी में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के डेरा डालने के बावजूद उन विशिष्ट इलाकों की सीटों पर उनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवारों को जिस बुरी तरह से हराया है वह इसी का प्रमाण है। उस पृष्ठभूमि में डिंपल यादव की ऐतिहासिक जीत का विशेष महत्व बन जाता है। कहने के लिए आज मुलायम के परिवार की प्रदेश में वही स्थिति हो गई है जो कभी नेहरू के परिवार की देश के स्तर पर थी। मुलायम के परिवार की तुलना तमिलनाडु के करुणानिधि परिवार और पंजाब के प्रकाश सिंह बादल परिवार से की जा सकती है। लेकिन यहां वे ज्यादा सफल कहे जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने पारिवारिक प्रतिस्पर्धा को संभाल कर अखिलेश को युवा अवस्था में ही यूपी जैसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि करुणानिधि के साथ उसकी संभावना क्षीण लगती है। वहां स्तालिन और अझगिरी में ज्यादा घमासान है और करुणानिधि ज्यादा बूढ़े भी हो चुके हैं। मुलायम वाली संभावना बादल के साथ है लेकिन अभी वह सपना साकार नहीं हुआ है। हालांकि इस कामयाबी में अखिलेश यादव का पना योगदान भी कम नहीं है।
इस चुनाव का दूसरा अर्थ प्रदेश के बाकी दलों की स्थिति पर एक टिप्पणी है। कांग्रेस पार्टी से तो राष्ट्रपति चुनाव के कारण सपा का तालमेल बन रहा है और ममता बनर्जी के दगा देने पर उसके दीर्घकालिक संकटमोचन बनने के आसार हैं। इसलिए कांग्रेस का उम्मीदवार न खड़ा करना समझ में आता है। इसी तरह बसपा ने 2009 में घोषणा कर रखी है कि वह कोई उपचुनाव नहीं लड़ेगी। इसलिए लगभग हारने वाले चुनाव में उतर कर वह अपनी प्रतिष्ठा और कार्यकर्ताओं के मनोबल को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी। लेकिन आंतरिक कलह में उलझी भारतीय जनता पार्टी को आखिर क्या हो गया ? ब्राह्मण बहुल कन्नौज क्षेत्र में वह लड़ते हुए भी क्यों नहीं दिखना चाहती थी ? क्यों उसके उम्मीदवार डेढ़ घंटे पहले परचा भरने लखनऊ से कन्नौज के लिए रवाना होते हैं जबकि वह रास्ता तीन घंटे से कम का नहीं है।  क्या वह अहंकार के शिखर पर बैठे बड़े नेताओं का एक समूह बन गई है या उसके नेता मायावती और मुलायम सिंह से इतने उपकृत हैं कि वे उनकी राह में कोई रोड़ा अटकाना नहीं चाहते ? क्या यह जनसंघ और समाजवादियों की मित्रता की पुरानी विरासत है या भाजपा की हाराकीरी की इच्छा ? क्या ऐसी पार्टी को गुजरात से आकर नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में खड़ा कर पाएंगे ?
लेकिन इस चुनाव का संदेश इन बातों से बड़ा है और वह है मुलायम सिंह यादव को मिली व्यापक सद्भावना और उससे बनने वाले अवसर का। यह महज संयोग हो सकता है कि इस चुनाव में उनकी बहू जीत कर आई है लेकिन इस जीत  की लक्ष्मी से वे स्त्रियों के सबलीकरण की राजनीति का श्रीगणेश भी कर सकते हैं। यह सभी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव, शरद और लालू प्रसाद जब महिला आरक्षण विधेयक का कड़ा विरोध करते हैं तो उनके मन में उससे अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति के कमजोर पड़ने और उन सीटों पर सवर्ण महिलाओं के हावी होने का खौफ रहता है। लेकिन आज वे ऐसी राजनीतिक स्थिति में हैं कि उन्हें यह खौफ मिटा देना चाहिए। वे इस जीत को संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के एक ऐतिहासिक सुअवसर के तौर पर ले सकते हैं। अगर वे 33 प्रतिशत आरक्षण का न भी समर्थन करें तो भी उसे पार्टियों में टिकट देने के रूप में तो शुरू ही कर सकते हैं। उन्हें आगे बढ़कर उस मामले पर कोई पहल करनी चाहिए। डिंपल की इस जीत से शरद यादव का वह भय भी घट सकता है कि संसद में परकटी महिलाओं की भरमार हो जाएगी। उन्हें याद रखना चाहिए कि डा राममनोहर लोहिया की सप्तक्रांतियों में पहला कार्यक्रम नर नारी समता का ही था। आज उन्हें भी इस सवाल पर सोचना चाहिए कि दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए सवर्णों को खाद बनने की सीख देने वाले डा लोहिया आखिर क्यों सबसे पहले पहले नर-नारी समता को ही महत्व देते थे। लोहिया के इस आह्वान को मुलायम सिंह को जरूर सुनना चाहिए। उनके अलावा इसे अखिलेश और डिंपल यादव को भी सुनना चाहिए। अगर वे इस अवसर पर इस संदेश को नहीं सुन पाए तो भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की 1952 में इलाहाबाद में हासिल की गई जीत के टक्कर की यह विजय नेहरू के परिवार की तरह एक प्रादेशिक परिवारवाद की जीत बनकर रह जाएगी और पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए महज जश्न का मौका बन कर विस्मृत हो जाएगी।



Sunday, June 3, 2012



जिम्मेदारी चाहिए, पाबंदी नहीं




अरुण कुमार त्रिपाठी
कुछ दिन पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव अतुल कुमार अनजान जब एक गोष्ठी से क्रांतिकारी भाषण देकर निकले तो उन्हें पकड़ लिया। बताइए आखिर क्या किया जाए ?  जिस आवारा पूंजी की शिकायत आप कर रहे हैं और राजनीति को जिसका शिकार बता रहे हैं उसका शिकार मीडिया भी है बुद्धिजीवी भी हैं। भले कुछ बड़ी बात या बड़ा दर्शन नहीं निकल रहा है, वह बहुत श्रेष्ठ रच नहीं पा रहा है लेकिन अभिव्यक्ति की सारी सीमाएं टूट रही हैं और तमाम तरह के व्दार खुल गए हैं। जाति आधारित गाली गलौच मची हुई है। महज नेता ही नहीं अहसिष्णु हो रहे हैं हमारा साहित्यिक समाज भी एक दूसरे के लिए बेहद कटु और विभाजित है। विशेष कर जबसे अस्मिताओं की राजनीति शुरू हुई है तबसे सब अपने-अपने हिस्से की इज्जत करते हैं कोई दूसरे की इज्जत करने को तैयार नहीं है। इस पर अतुल अनजान का कहना था कि क्या करें भारतीय समाज ऐसा ही है। उनका यह वाक्य बहस से पलायन भी था और सोच की गहराई में उतरने के लिए एक सीढ़ी भी। क्या सचमुच हमारा मीडिया वैसा ही हो रहा है जैसा हमारा समाज है ? या मीडिया समाचारों और विचारों की ऐसी संसद बन गई है जिसका सत्र अनवरत चल रहा है पर जहां कोई सत्ता पक्ष नहीं है और न ही कोई स्पीकर है। सभी विपक्ष हैं और हर कोई किसी न किसी से भिड़ा हुआ है। क्या यह मीडिया की बरबरीक ग्रंथि है जो जहां भी कोई हारने लगेगा उसी की तरफ से लड़ने को तैयार हो जाएगा या यह उसका स्वार्थ है कि जहां कुछ मिलने वाला होगा उसी तरफ होकर उसी की भाषा बोलने लगेगा।
मीडिया की तमाम कमियों के बावजूद उसका उसी तरह एक बहुलवादी रूप उभरा है जैसा भारतीय समाज का है। जाहिर है बहुलवाद अगर जिम्मेदारी के साथ चले तो एक स्वस्थ लोकतंत्र की तरफ जाता है और अगर गैर जिम्मेदारी से चले तो अराजकता की तरफ। यही वजह कि मौजूदा मीडिया के इस स्वरूप में एक तरफ लोकतंत्र देखा जा रहा है तो दूसरी तरफ अराजकतावाद। लोकतंत्र देखने वाले उसे संयम बरतने और आत्मनियंत्रण की सलाह दे रहे हैं तो अराजकता की आहट देखने वाले चौतरफा पाबंदी का इंतजाम करने में लगे हैं। जब प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ही नहीं न्यायमूर्ति एस एच कपाडिया भी दिशानिर्दश की जरूरत महसूस करते हों तो जाहिर है कि मामला गंभीर है। वह बहस हाल में संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी पर हुई हाल की श्रेष्ठतम बहस थी जो न्यायमूर्ति कपाडिया की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ के सामने 17 दिनों तक हुई। उस बहस में संविधान के अनुच्छेद 19(1) और 21 आमने सामने खड़े हो गए। इस बहस ने हमारे दोनों प्रेस आयोगों की सिफारिशों और प्रेस परिषद के सुझावों से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की कठिन यात्रा की झलक पेश कर दी। यह भी कहा गया कि पहले ही मीडिया पर पाबंदी लगाने के लिए इतने कानून हैं कि किसी नए कानून की क्या जरूरत है ? इतना ही नहीं जब अनुच्छेद 19(2) स्वयं अपने ऊपर आठ तरह के युक्तिसंगत प्रतिबंध लगा लेता है और उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए देश में तमाम तरह के कानून बनाए गए हैं तो अब और क्या चाहिए? खास बात यह है कि इन नई तरह की पाबंदियों की बात वे लोग कर रहे हैं जो कानून के गहरे जानकार हैं और रोज उसकी नई नई व्याख्या प्रस्तुत करते रहते हैं।
इसलिए गड़बड़ी कहां है ? या तो उन कानूनों का कोई कहीं ठीक से इस्तेमाल ही नहीं कर रहा है या फिर मीडिया इतना ताकतवर हो गया है कि उसके सामने वे नाकारा हो गए हैं? दरअसल मीडिया के मौजूदा रूप से वे ज्यादा परेशान हैं जिन्होंने उसे उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में पाल पोस कर बड़ा किया था। उन्हें उम्मीद थी कि वह उनका वफादार रहेगा और आखिर तक उन्हीं की भाषा बोलेगा। वह एक हद तक उनकी बात का कायल भी रहा क्योंकि इक्कीसवीं सदी का पहला दशक कुछ ऐसा रह जैसे मीडिया में समाचारों और विचारों के बारे में एक महाआमसहमति बन गई हो। उसने मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और झुग्गी झोपड़ी वालों की बात करनी बंद कर दी थी। इस दौरान उनके अधिकारों के दमन में मीडिया ने सहयोग भी किया। लेकिन ढांचागत सुधार के बहाने विचारों और समाचारों पर लादी गई यह तानाशाही ज्यादा समय तक चल नहीं पाई। वह नीतियों सभी लोगों क्या उनकी जरूरत पर भी खरी नहीं उतरीं जो उस पर लट्टू हुए जा रहे थे। उनको जगह जगह से चुनौती मिलने लगी और उन नीतियों पर चलने वालों से महाघोटाले उजागर होने लगे। लगा जैसे इन नीतियों के जरूरी अंग घोटाले से ही बने हों। व्यवस्था को अप्रिय लगने वाली वे खबरें मीडिया के सीने पर सवार हो गईं। वे कभी हाशिए पर रहने वाले समाज की हिंसा के माध्यम से आने  लगीं तो कभी मुख्यधारा के मध्यवर्ग के अहिंसक आंदोलन के तौर पर। इस बीच प्रौद्योगिकी को विकास ने मीडिया को वह नहीं रहने दिया जो उसके बारे में सोचा गया था। वह सोशल मीडिया के रूप में इतना फैल गया कि बड़ी पूंजी और बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों को ठेंगा दिखाने लगा। समाचारों और टिप्पणियों का एकदम नया पर्यावरण बन गया जो किसी बंदिश को मानने को तैयार ही नहीं। जहां फेसबुक और ट्विटर से लेकर विकीलीक्स तक जाने की आजादी है। वह आजादी जो इंसान के दिलो दिमाग को तो छूती ही है और जो राजसत्ता का उपहास भी उड़ाती है। वह कभी किसी बड़े नेता की आपत्तिजनक सीडी जारी करती है तो कभी किसी शिगूफे से सनसनी पैदा करती है। पर एक बात जाहिर है कि अब कोई खबर रुक नहीं सकती। वह कहीं न कहीं तो आ ही जाएगी। इसने बड़े लोगों में एक लाचारी पैदा की है। इससे वे भी हैरान हैं जिन्होंने एक दौर में उसे पूंजी के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश की थी। इसलिए अब वे उसे राज्य के माध्यम से नियंत्रित करना चाह रहे हैं। राज्य के माध्यम से नियंत्रित मीडिया वाले देश अभी भी दुनिया  हैं। चीन उसका बड़ा उदाहरण है। उसकी तरक्की हमें ललचाती है तो उसका मीडिया हमें डराता है। लेकिन अराजक मीडिया भी हमें परेशान करता है। वह कहीं लोकतंत्र को जातियों, धर्मों और अस्मिताओं के नए टकराव तंत्र में न बदल दे? उसमें उत्साही लोग भी आए हैं और धंधेबाज लोगों की भी तादाद बढ़ी है। वह जनता के हित के बहाने चंद लोगों के स्वार्थ साधने का औजार भी बना है। लेकिन यहां हम यह कह कर नहीं बच सकते कि हमारा समाज जैसा है उसे वैसा ही मीडिया नसीब हुआ है। हमें अगर ज्यादा लोकतांत्रिक समाज बनाना है तो उसके लिए आजादी भी चाहिए और जिम्मेदारी भी। क्योंकि स्वतंत्रता स्वशासन से चलती है और स्वशासन अपने पर शासन करने का नाम है। मीडिया को स्वशासन की लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। इस पर विमर्श करने का हक सभी को है लेकिन पाबंदी लगाने का किसी को नहीं।