Tuesday, January 24, 2012

जाति और डेरों का लोकतंत्र

यह जानकार हैरानी होती है कि पंजाब के ज्यादातर राजनेता चुनावी वैतरणी पार करने के लिए डेराओं के चक्कर लगा रहे हैं। सबसे ज्यादा भीड़ डेरा सच्च सौदा के बाबा गुरमीत राम रहीम के यहां हो रही है। हाल ही में कांग्रेस की नेता परनीत कौर और रनिंदर सिंह ने बाबा से मुलाकात की है। बाबा के प्रमुख लोगों की समिति पंजाब विधानसभा के चुनावों में अपनी भूमिका तय करने के लिए बैठक कर रही है और जैसा कि संकेत मिले हैं कि उनके असर को देखते हुए वे आगामी 30 तारीख को किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं। पंजाब में बाबा के पचास लाख अनुयायी बताए जाते हैं और उनका राज्य की 117 में से 55 विधानसभा सीटों पर जोर और अन्य 30 सीटों पर असर बताया जाता है। इनमें कई क्षेत्र राज्य के 67 सीटों वाले मालवा क्षेत्र में पड़ते हैं। पंजाब से सटे हरियाणा के सिरसा में डेरा सच्च सौदा का आश्रम चलाने वाले बाबा राम रहीम वही हैं जिन पर अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार और अन्य आपराधिक मामले हैं और उनकी भूमिका पर पारंपरिक और अनुदार सिख पंथ को कड़ी आपत्तियां हैं, जिसके चलते दंगे वगैरह भी हो चुके हैं। शायद इसीलिए उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी डेरा सच्च सौदा के लोग शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के हितों की रक्षा करने वाले शिरोमणि अकाली दल को उसी तरह से झटका देंगे जैसा उन्होंने 2007 के चुनावों में दिया था। यानी उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है और हो सकता है जल्दी ही इस बारे में कोई परोक्ष या प्रत्यक्ष बयान भी आ जाए। यही स्थिति पंजाब के अन्य डेरों की भी है। पंजाब के तमाम डेरों में राजनीतिक दलों की भीड़ बढ़ती जा रही है। डेरा सच्च सौदा ही नहीं संत रविदास के आदर्शो पर बना डेरा सचखंड, आशुतोष महाराज का दिव्य ज्योति संस्थान, रोपड़ का बाबा भनियारेवाला और अन्य डेरों में राजनीतिक दल समर्थन मांगने और उनके मुद्दों को महत्व देने के लिए दौड़ रहे हैं। निरंकारियों का अपना दायरा है। यानी मध्ययुगीन डेरों के आगे आधुनिक राजसत्ता नतमस्तक हो रही है ताकि वह अपने लिए पर्याप्त ताकत बटोर सके। दरअसल आधुनिक लोकतंत्र जिन दबाव समूहों के संगठनों के माध्यम से अपने को चलाना चाहता था, उसका कोई आधुनिक स्वरूप विकसित करने में वह विफल रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के ट्रेड यूनियनों और कर्मचारी संगठनों या किसान संगठनों के पास जाने की खबरें कम आती हैं। या तो डेरा में माथा टेकने की खबरें आती हैं या गुरुद्वारों में। उसी तरह से उत्तर प्रदेश की पार्टियां विभिन्न जातिगत संगठनों के पास दौड़ती नजर आती हैं। उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के संगठन हैं जरूर पर उतने व्यवस्थित नहीं हैं जितने पंजाब वगैरह में। यही वजह है कि वहां राजनीति करने के लिए कई जाति के संगठन खड़े किए गए हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि वहां जातिविरोधी आंदोलन लगातार उतना शक्तिशाली नहीं रहा जितना पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में। आज जब उसका बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से एक आक्रामक राजनीतिक स्वरूप उभरा है तो वह अपने को सामाजिक स्तर पर भी गोलबंद कर रहा है।ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि पंजाब के भीतर राजनीति ने धर्म के साथ घालमेल किया है और वहां चाहे अकाली दल हो या कांग्रेस दोनों धर्मनिरपेक्ष राजनीति के मूल्यों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। अकाली दल की राजनीति तो कभी धर्म और उसके संस्थानों से अलग हो ही नहीं पाई लेकिन कांग्रेस की भी मजबूरी उन्हीं धार्मिक संस्थानों के भीतर राजनीति करने की है जिनकोवह अपने सिद्धांत के विरुद्ध मानती है। तो क्या मान लिया जाए कि 62 गणतंत्र दिवस और 65 स्वाधीनता दिवस देखने के बाद वह वैसी नहीं हो सकी है जैसी उससे अपेक्षा थी? भारतीय राजनीति की इन्हीं आशंकाओं को संविधान निर्माता डा भीमराव आंबेडकर ने अपने ढंग से व्यक्त किया था। उनका कहना था कि अगर समाज में समानता नहीं होगी तो इस लोकतंत्र में तमाम तरह की विकृतियां पैदा होंगी और संविधान का बार-बार उल्लंघन होगा। चाहे पंजाब के डेरे हों या उत्तर प्रदेश के जाति संगठन या कर्नाटक के लिंगायत मठ, इनकी भूमिका इसलिए बढ़ी है क्योंकि समाज में असमानता बरकरार है और राजनीतिक दल उसे दूर करने में उस तेजी से सफल नहीं हो पा रहे हैं जैसे होना चाहिए। पंजाब के डेरे एक तरह से गुरुद्वारों पर काबिज जाट सिखों के वर्चस्व के विरुद्ध एक चुनौती हैं। बाबा राम रहीम के ज्यादातर अनुयायी दलित और छोटी जातियों से संबंधित हैं। इन जातियों ने कभी कांग्रेस के साथ अपना गठजोड़ बनाया था लेकिन उनसे अपेक्षा पूरी न होते देख अपने धार्मिक और सामाजिक संगठनों को मजबूत करने पर जोर दिया। यह विडंबना है कि जिस हिंदू धर्म की जातिगत असमानता और अन्य बुराइयों से ऊब कर सिख धर्म निकला था वह अपने उन आदर्शो पर खरा नहीं उतरा। पंजाब में दलित सिखों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी उन्हें अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि उन्होंने अपने डेरों के माध्यम से जातिगत वर्चस्व को चुनौती दी है और आज भी वे धरम, रविदासी और रामदासी जैसे तमाम समुदायों से अपनी पहचान बनाते हैं। मालवा में सिख धर्म को दलितों ने बड़ी संख्या में अपनाया था। जबकि दोआबा के दलितों ने वैसा नहीं किया। उधर माझा इलाके में रामदासी और रविदासी समुदायों का जोर है। असमानता और उपेक्षा से उत्पन्न उनकी पीड़ा है और उसके खिलाफ नाराजगी व्यक्त करने के अपने तरीके हैं। इसी नाराजगी को व्यक्त होने और बराबरी आने से रोकने के लिए सवर्ण समाज भी धर्म का ही सहारा लेता है। अगर उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों के उभार के समय भाजपा ने मंदिर आंदोलन चलाकर उन्हें रोकना चाहा तो पंजाब में अकाली और पारंपरिक तौर पर अनुदार सिख डेरों के खिलाफ आक्रामक होते रहते हैं। लेकिन डेरों ने समाज के महज असमानता के खिलाफ पंथीय गोलबंदी ही नहीं की है बल्कि समाज की अन्य बुराइयों के खिलाफ भी आवाज उठाई है। आज पंजाब के 40 से 60 प्रतिशत युवक नशे के शिकार हैं। अक्सर डेरों में घरों की महिलाएं रोती हुई यह अपील करने पहुंचती हैं कि उनके बेटे या पति को नशे से बचाया जाए। डेरे वाले नशे से बचने की अपील जारी भी करते हैं। पंजाब की दूसरी बड़ी समस्या जमीन का क्षरण है। वहां की मिट्टी की उर्वरता न सिर्फ खोती जा रही है बल्कि कई इलाकों का पानी जहरीला होता जा रहा है। डेरों की चिंता में पर्यावरण के यह सवाल शामिल हैं। उमेंद्र दत्त जैसे लोगों की अगुआई में खेती बिरासत मिशन भी इस दशा को सुधारने के लिए प्रयासरत है। पूंजीवाद के साथ मिलकर चलने वाले राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने और शासन चलाने के लक्ष्य पर अपने को केंद्रित किया लेकिन वे सामाजिक बदलाव और पर्यावरण जैसे मुद्दो को छोड़ रखा है। डेरे वाले उसी खाली जमीन को भर रहे हैं। अब कोई उन्हें धर्म में राजनीति का घालमेल कहे तो कहता रहे। भारतीय राजनीति की विविधता का यही रंग है।

Thursday, January 5, 2012

सेनापति पर विवाद ठीक नहीं


नाम में क्या रखा है? रोमियो से कहा गया जूलियट का यह संवाद वहां ठीक है जहां प्रेम का सवाल हो, लेकिन जहां कैरियर और सत्ता का सवाल हो वहां नाम में भी बहुत कुछ रखा है और जन्मतिथि में तो उससे भी ज्यादा है। रायसीना की पहाड़ियों पर स्थित भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान का साउथ ब्लाक इन दिनों जन्मतिथि के एक महत्वपूर्ण विवाद में घिर गया है। और यह विवाद किसी सामान्य व्यक्ति का नहीं भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वीके सिंह का है। जनरल वीके सिंह कह रहे हैं कि उनका जन्म 10 मई 1951 को हुआ और रक्षा मंत्रलय के रिकार्ड कह रहे हैं कि वह 10 मई 1950 को हुआ। रक्षा मंत्री एके एंटनी उनके दावे को कम से कम दो बार खारिज कर चुके हैं और अब जबकि मंत्रलय के रिकार्ड के अनुसार इस साल मई में उनके रिटायर होने का समय आ रहा है तो विवाद और तेज उठ गया है।

उसने रक्षा मंत्रलय और सेना के बीच ही नहीं सेना के दो विभागों के बीच एक तरह की खींचतान की स्थिति पैदा कर रखी है। विवाद इतना गंभीर है कि एक दिन पहले इस मसले पर प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने रक्षामंत्री एके एंटनी से आधे घंटे बात की। इस बीच पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने रक्षामंत्री को पत्र लिखकर इस मामले को वीके सिंह के पक्ष में निपटाने की अपील की है। उनका कहना है कि यह सारा विवाद पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर का खड़ा किया हुआ है, वे जनरल विक्रम सिंह को सेना प्रमुख बनवाना चाहते थे इसलिए उन्होंने सेना के दो विभागों के रिकार्ड में उनकी दो तरह की जन्मतिथि लिखवाई। वेतन, भत्ते से संबंधित एडजन्टैंट जनरल ब्रांच में वीके सिंह का जन्मवर्ष 1951 और पोस्टिंग प्रमोशन देखने वाली शाखा मिलिट्री सेक्रेटरी ब्रांच में 1950 लिखा हुआ है। सूचना के अधिकार के माध्यम से यह विवाद उसी तरह सामने आया है जिस तरह कुछ महीने पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और गृहमंत्री पी चिदंबरम का विवाद सामने आया था। और जनरल वीके सिंह के खंडन के बावजूद इस मामले के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने और विवाद के सार्वजनिक होने की आशंका समाप्त नहीं हुई है। वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर एक जनहित याचिका दायर हो चुकी है कि उनकी जन्मतिथि निर्धारित की जाए।

अगर सरकार की तरफ से वीके सिंह के पक्ष में विवाद का सम्यक समाधान नहीं हुआ तो उनके सामने सश बल पंचाट या सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला है। लेकिन भारतीय सेना के मौजूदा प्रमुख का अपनी सेवा शर्तो के विवाद को न्यायालय में ले जाने का मतलब है सरकार की वैधानिकता को चुनौती देना। इस चुनौती से न सिर्फ सेना के मनोबल पर असर पड़ता है बल्कि उस सरकार का इकबाल और भी कमजोर होता है जो पहले से तमाम तरह के घोटालों में फंस कर लड़खड़ा रही है। संभवत: सेना का ख्याल रखते हुए ही अमरिंदर सिंह ने रक्षामंत्री को लिखे पत्र में देश के 11.3 लाख सैनिकों के मनोबल का सवाल उठाया है। वे जनरल वीके सिंह से निजी तौर पर भी जुड़े हो सकते हैं और अपने विधानसभा चुनाव में उतर चुके पंजाब के लाखों सैनिक परिवारों का भी ख्याल कर रहे हो सकते हैं।

वजह जो भी हो पर रक्षा मंत्रलय और सेना के बीच इस तरह की शीर्ष स्तर की खींचतान न तो देश के लोकतंत्र के लिए शुभ है न ही देश की सुरक्षा के लिए। भारतीय लोकतंत्र इस मायने में निश्चिंत रह सकता है कि वहां नागरिक प्रशासन ही श्रेष्ठ है और सेना उसी के तहत पूरे विश्वास से काम करती है। हमारे यहां पड़ोसी देशों की तरह सेना प्रमुख न तो नागरिक प्रशासन को चुनौती देते हैं न ही यहां पाकिस्तान की तरह मेमोगेट जैसा कोई खतरा है। इसी भावना को व्यक्त करते हुए जनरल वीके सिंह ने कहा है कि हमारा कार्यकाल तो सरकार ही तय करेगी और हमारा कोर्ट जाने का कोई इरादा नहीं है। इस बयान में उन्होंने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। लेकिन इसी के साथ उनका यह कहना कि हमारी जन्मतिथि को सरकार को नहीं बदल सकती, उनके दुखी मन को व्यक्त करता है। अब यह देखना लोकतांत्रिक सरकार और उसकी नौकरशाही का काम है कि जनरल वीके सिंह के साथ कोई अन्याय न हो।