दो पाटों के बीच में दिल्ली
अरुण कुमार त्रिपाठी
दिल्ली बहुमत और करिश्माई नेताओं के दो पाटों के बीच फंस गई है। एक
तरफ भारतीय जनता पार्टी को अपने इतिहास में पहली बार बहुमत पाने का अहंकार है तो
दूसरी तरफ दो दिन पहले खड़ी हुई आप पार्टी को अपने प्रचंड बहुमत के घमंड के साथ ही
उसके अस्तित्व को बचाने की चुनौती है। लेकिन मोदी और अरविंद केजरीवाल के
व्यक्तित्व का टकराव भी कम नहीं है। दो पाटों के इस टकराव के बीच न तो भारतीय जनता
पार्टी के अच्छे दिन के दावे सही साबित हो पा रहे हैं, न ही आप पार्टी की नई
राजनीति के। साफ सुथरी राजनीति करने के केजरीवाल के दावे को पूर्व मंत्री जितेंद्र
तोमर के फर्जी डिग्री प्रकरण से धक्का लगा है। इससे आप पार्टी की ईमानदारी तार-तार
हो गई है। सोमनाथ भारती के घरेलू विवाद और विधायक सुरिंदर सिंह की भी डिग्री पर
संदेह और 17 अन्य विधायकों के किसी न किसी गड़बड़ी में शामिल होने की आशंका से
अगले डेढ़ साल तक आप पार्टी की सरकार को विवादों में उलझाए रखने का खतरा बन गया
है। दूसरी तरफ झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्य का गठन करने, हाल में
राज्यों को वित्तीय स्वायत्तता देने और कभी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने
की मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से आप पार्टी की सरकार के साथ
व्यवहार कर रही है, वह इंदिरा गांधी के तानाशाही वाले दिनों की याद दिलाने के लिए
काफी है। इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत केरल में पहली बार चुन कर
आई कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को गिराकर की थी और इस काम को वे बार-बार दोहराती
रहीं। नरेंद्र मोदी दिल्ली विधानसभा की हार का बदला केजरीवाल को शक्तिहीन साबित
करके, बदनाम करके और चारों तरफ से घेरकर करना चाहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि
ममता बनर्जी, नवीन कुमार, जयललिता और अन्य राज्यों की गैर-भाजपाई सरकारों को नाथने
के लिए अगर केंद्र सरकार को सीबीआई की जरूरत है तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की
सरकार को घेरने के लिए दिल्ली पुलिस की ही काफी है। मोदी ने दिल्ली की सवा करोड़
जनता के आदेश को विधानसभा की बजाय नगर निगम जैसी हैसियत में सीमित कर दिया है।
पिछले दो महीनों में उपराज्यपाल यानी लाट साहब के माध्यम से बड़ी
दिल्ली की सरकार ने छोटी दिल्ली की सरकार को तरह सत्ता संघर्ष में फंसा कर रुलाया
है वह दिल्ली की जनता का अपमान तो है ही साथ में भाजपा के अपने संघीय उसूलों की भी
अवहेलना है। दिलचस्प बात है कि इस काम में उस मीडिया ने भी सरकार का भरपूर साथ
दिया है जो देश में लंबे समय मोदी का अखंड शासन देखना चाहता है और अपने साथ देश का
भी भगवाकरण करना चाहता है। धीरे-धीरे यह दिल्ली की रणभूमि नैतिक से ज्यादा
राजनीतिक होती जा रही है। अगर केजरीवाल नैतिक जमीन खो रहे हैं तो मोदी भी उस नैतिक
उम्मीद को झुठला रहे हैं कि वे बदले की भावना से काम नहीं करेंगे। दिल्ली में
दो-दो गृह सचिवों की नियुक्ति और दो-दो एंटी करप्शन ब्यूरो की नियुक्ति से प्रशासन
पंगु ही नहीं त्रिशंकु बन गया है। अफसरों के दफ्तरों में ताले और एक की फाइल का
आदेश मानने और दूसरे को खारिज करने के साथ यह लड़ाई सबसे गंदे रूप में तब सामने आई
जब दिल्ली की सड़कों पर सफाई कर्मचारियों ने कूड़ा फैलाकर यहां की राजनीतिक स्थिति
का बयान कर दिया। कांग्रेस, भाजपा और आप की इस खींचतान में न तो मोदी के स्वच्छ भारत
की चिंता रही न ही सभी को स्वास्थ्य देने की आप पार्टी के दावे की।
इस छीछालेदर वाली राजनीति के बीच केजरीवाल अपने को प्रताड़ित बनाकर नई
राजनीति की पटकथा जरूर लिख रहे हैं। वे राज्यों के प्रति केंद्र के व्यवहार का
सवाल कभी नीतीश कुमार तो कभी ममता से मिलकर उठाने लगे हैं। वे देर सबेर पूर्वोत्तर
राज्यों की उस गोलबंदी से भी जुड़ सकते हैं जो त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक
सरकार के नेतृत्व में बन रहे कई राज्यों के असंतोष के इर्द गिर्द जमा हो रही है।
लेकिन इस बारे में केंद्र सरकार भी चौकस है। देखना है कि दिल्ली की इस गंदी
राजनीति का अंत किसी भयानक गंदगी में होता है या इससे कुछ स्वच्छ आबोहवा बनती है?
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