भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणे अपनी
स्वायत्तता के लिए संघर्षरत है। केंद्र सरकार उसे राष्ट्रवादी बनाना चाहती है और
वह रचनात्मक बने रहना चाहता है। एनडीए की मौजूदा सरकार को लगता है कि देश के फिल्म
और टेलीविजन जगत पर वामपंथी फिल्मकारों और रचनाकारों को कब्जा रहा है और उसे बदले
जाने की जरूरत है। हो सकता है कांग्रेस के शासनकाल में और भारत में वामपंथी आंदोलन
के साथ रचनाकारों का गहरा रिश्ता होने के नाते ऐसा रहा भी हो और सोवियत संघ के पतन
और पूंजीवाद के विजय के साथ वैसा संतुलन लाना एक हद तक जरूरी भी हो। लेकिन इसका
अर्थ यह नहीं कि देश के एक प्रमुख संस्थान को उन भाजपाइयों को सौंप दिया जाए जिनकी
न तो उस स्तर की योग्यता है और न ही इस विविधता और उदारता वाले देश की बेहतर समझ।
एफटीआईआई पुणे के अध्यक्ष का पद एक साल से खाली था। जब से सईद अख्तर मिर्जा हटे तब
से सरकार को कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल पाया। अदूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल
और गुलजार जैसी विभूतियों के नामों पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय में चर्चाएं हुईं
भी लेकिन उन्हें मजूरी नहीं मिल पाई। सरकार ने अध्यक्ष पद के लिए गजेंद्र चौहान का
नाम चुना जिनकी कुल जमा ख्याति महाभारत धारावाहिक में पांडवों के बड़े भाई
युद्धिष्ठिर की भूमिका निभाने की है। एफटीआईआई में आठ में से जिन चार प्रमुख लोगों
की नियुक्ति की गई है वे सब भी भाजपा से ही ताल्लुक रखते हैं।
एनडीए सरकार ने यह सिलसिला नेशनल बुक ट्रस्ट,
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी और आइसीएचआर सभी जगह चला
रखा है। हो सकता है कि संघ के हिंदुत्ववादी सोच से प्रभावित लोग इन संस्थाओं से वह
राष्ट्रवादी विमर्श पैदा करें जो कांग्रेस और जनता पार्टी और राष्ट्रीय मोर्चा का
शासन नहीं पैदा कर पाया और हो सकता है उससे भारत निर्माण का विचार और समृद्ध व
विविधता भरा रूप ले। लेकिन ज्यादा खतरा इस बात का है कि भारत का पूरा विचार इतना
संकीर्ण हो जाए कि वह अगले दस बीस साल तक चलने लायक ही न बचे। इसलिए संस्थाओं के
इस प्रकार कब्जाने से भाजपा को भले लाभ हो लेकिन देश को नुकसान हो सकता है।
No comments:
Post a Comment