Wednesday, May 23, 2012


माटी में मिलती ममता



अरुण कुमार त्रिपाठी




कैसी मशाल लेकर चले तीरगी में आप, जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही। लगता है दुष्यंत कुमार का यह शेर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर ठीक बैठ रहा है। उम्मीद की जा रही थी कि वे मार्क्सवादियों की वाममोर्चा सरकार का विकल्प पेश करने के लिए उनसे भी ज्यादा वामपंथी हो रही हैं और वे एक प्रकार से ऊंची छलांग लगा रही हैं। लेकिन उन्होंने ऊंची और लंबी छलांगों के विपरीत मार्क्सवादी शासन के अतीत में ऐसी छोटी छलांगें लगानी शुरू कर दी हैं जहां उन्हें बार बार बच्चों के स्लाइड गेम की तरह पतन का आनंद प्राप्त हो रहा है। उनकी कार्यशैली को देखकर एक तरफ इंदिरा गांधी के आपातकाल और जयललिता व मायावती के दमनकारी शासन की यादें ताजा हो जाती हैं तो दूसरी तरफ जार्ज आरवेल के उपन्यास 1984 का स्मरण होने लगता है। फर्क यही है कि 1984 में कम्युनिस्टों की सर्वसत्तावादी तानाशाही के दौरान नागरिक स्वतंत्रता पर बिग ब्रदर ने पहरा लगा रखा था और यहां कम्युनिस्टों को सत्ता से हटाकर आई तृणमूल कांग्रेस की बड़ी दीदी ने अभिव्यक्ति की आजादी पर निगरानी की ठान रखी है। उस उपन्यास में हर घर में टेलीस्क्रीन लगा हुआ था ताकि पार्टी और सरकार विरोधी गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके, जबकि यहां ममता बनर्जी के सहयोगी तमाम सोशल मीडिया को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए उस पर आक्रामक निगरानी कर रहे हैं।
यही कारण है कि आजकल कोलकाता में हरमद थेके उन्मद का जुमला चल निकला है। मतलब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की हरमद वाहिनी यानी दमनकारी गुंडों की फौज गई तो तृणमूल की पागलों की फौज आ गई है। यह जुमला जिस तरह से गढ़ा गया है उससे साफ है कि इसके पीछे बंगाल के बुद्धिजीवियों का दिमाग है और यह हैरानी की बात नहीं है उनके खिलाफ बुद्धिजीवियों के प्रदर्शन होने लगे हैं। प्रसिद्ध लेखिका और जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी जब कहती हैं-  तानाशाही कभी सफल नहीं होती। वह न तो हिटलर के जर्मनी में कामयाब हुई, न ही मुसोलिनी के इटली में- तो उनकी ही नहीं उनके पीछे खड़ी बंगाल के बौद्धिकों, कलाकारों और रचनाकारों की पूरी बिरादरी की नाराजगी का अहसास होता है। हालांकि महाश्वेता देवी की नाराजगी मीडिया और मध्यवर्ग की तरह हाल में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिषेक महापात्र और माइक्रोबायलाजिस्ट पार्थ सारथी राय की गिरफ्तारी से ही नहीं शुरू हुई है। उनकी नाराजगी उसी समय से चालू हो गई थी जब ममता बनर्जी ने माओवादियों से छल करते हुए लालगढ़ में कार्रवाई की और माओवादी नेता किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव को मरवा दिया। यह बात जगजाहिर है कि ममता बनर्जी ने पहले लोकसभा और बाद में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए माओवादियों का सहारा लिया था। बल्कि जिस सिंगुर और नंदीग्राम संघर्ष के बाद उनकी राजनीति में निर्णायक मोड़ आया उसमें तृणमूल कांग्रेस की तरह ही माओवादियों की भी  भागीदारी बताई जाती है।
लेकिन ममता ने माओवाद समर्थकों को ही नहीं नाराज किया। आमरी अस्पताल में अग्निकांड के बाद जिस तरह से उसके मालिकों की गिरफ्तारी हुई, उससे वहां का पूंजीपति वर्ग भी चिढ़ गया। टाटा की नैनो परियोजना को भगाए जाने और प्रियंका टोडी के मामले में रिजवानुर का पक्ष लेने के बाद वह पहले से ही नाराज था। नाराजगी का यह दायरा तब और बढ़ गया जब ममता ने अपने खिलाफ लिखने वाले तमाम अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों में खरीदे जाने पर रोक लगा दी। उसी के साथ रूस की अक्तूबर क्रांति और मार्क्सवाद को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया। अखबारों को हटाने के लिए दलील दी गई कि सरकार इस प्रकार से मझोले अखबारों को प्रोत्साहित करना चाहती है और पाठ्यक्रम के लिए दलील दी गई कि सरकार महात्मा गांधी और नेहरू जैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को उचित जगह देना चाहती है।
ममता सरकार ने अपने प्रति नाराजगी का घेरा उस समय और बढ़ा लिया जब उन्होंने अपनी पार्टी के रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को आनन फानन में बर्खास्त करवा दिया और फिर दिनेश त्रिवेदी, मुकुल राय के साथ दीदी के कार्टून को ई मेल करने वाले प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को नारी की गरिमा को आहत करने और मानहानि के आरोप में गिरफ्तार करवा दिया। हद तो तब हो गई जब झुग्गी झोपड़ी वालों के विस्थापन के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले वैज्ञानिक पार्थ सारथी राय को पकड़ लिया गया और उनके पक्ष में नाम चामस्की जैसे बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया। जबकि पार्थ सारथी ने सिंगुर और नंदीग्राम जैसे आंदोलनों में भी हिस्सा लिया था।
विरोधियों के दमन की इन कार्रवाइयों के कारण वाममोर्चा के 34 साल के शासन के पतन के बाद पश्चिम बंगाल में जो उम्मीदें हरी हुई थीं वे साल भर में ही मुरझा रही हैं। पर क्या इन सारी स्थितियों का ठीकरा ममता बनर्जी के सिर ही फोड़ा जाए या उसके लिए उन ताकतों को भी जिम्मेदार माना जाए जो ममता बनर्जी का अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रही थीं?  वे ताकतें वाममोर्चा सरकार को तो हटाना चाहती थीं लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में उसी की नीतियों को लाना चाहती थीं। वे चाहती थीं कि ममता बनर्जी केंद्र सरकार पर उदारीकरण को तेज करने के लिए दबाव डालें न कि वामपंथियों की तरह उसे रोकने के लिए। हालांकि दिनेश त्रिवेदी के प्रति ममता बनर्जी की नाराजगी को महज अहम का टकराव बताया गया पर वजह इतनी ही नहीं थी। दरअसल दिनेश त्रिवेदी प्रणव मुखर्जी और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के इशारे पर विश्व बैंक प्रेरित योजना आयोग का एजेंडा लागू कर रहे थे। जिसके तहत रेलवे की तरक्की का रास्ता निजीकरण से ही होकर गुजरता है।इसलिए जहां वह ताकतवर वर्ग ममता को तरह से तरह से बदनाम करना चाहता है वहीं वे उसका मुकाबला रणनीतिक तरीके से करने के बजाय आंख मूंद कर करना चाहती हैं और ऐसा करते हुए वे दमन के दुष्चक्र में फंसती जाती हैं।
लेकिन ममता का यह कहना आंशिक तौर पर सही है कि उनके रहन सहन और गरीब परिवेश से आने के कारण बंगाल का भद्रलोक उन्हें हिकारत की नजर से देखता है जबकि गरीब और ग्रामीण जनता अभी भी उनके साथ है। आखिर उनके संघर्षों को देखकर यही भद्रलोक उन्हें देवी भी मानने लगा था। लेकिन कोई भी समाज ऐसा नेता नहीं चाहेगा जो उसी से लड़ने लगे। यह बात सही है कि मार्क्सवादियों ने अपने 34 साल के शासन में अपने विरोधियों को हाशिए पर रखा और उसके लिए पार्टी के ढांचे का भरपूर इस्तेमाल किया। उन्होंने ममता बनर्जी को निजी तौर पर भी समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन वे अपने समाज से लड़ते हुए नहीं दिखते थे और जब दिखे तो तबाह हुए। सिंगुर और नंदीग्राम उसके उदाहरण हैं।
मार्क्सवादी संभवतः यह समझते थे कि बंगाल की सामाजिक सांस्कृतिक विरासत क्या है ? उसमें हमेशा लड़ा ही नहीं जाता बल्कि कभी ठहर कर प्रेम और हंसी मजाक भी किया जाता है और एक दूसरे को सहा जाता है। इसकी झलक रवींद्र नाथ टैगोर से लेकर महाश्वेता देवी तक में दिखाई पड़ती है। महाश्वेता देवी ने जब बुद्धदेव को बुद्धूदेव कहा तो उन्हें सहना पड़ा। इसीलिए मार्क्सवादियों ने शुरू में वर्गशत्रु तलाशे और बाद में उन्हीं से हंसना खेलना शुरू कर दिया। उन्होंने तृणमूल के नेताओं की तरह यह नहीं कहा कि उनसे शादी विवाह बंद कर दो। वे धर्मनिरपेक्षता का दावा भी करते थे और दुर्गापूजा कमेटियों में भी रहते थे।

किसी भी शासक के लिए बहुत जरूरी होता है अपने पूर्ववर्ती की कमियों से परहेज करना और उसकी अच्छाइयों को ग्रहण करना। ममता बनर्जी मार्क्सवादियों की तरह पार्टी का संगठित गिरोह जैसा ढांचा नहीं बना सकतीं और उन्हें बनाना भी नहीं चाहिए। लेकिन उन्हें पार्टी और सरकार को तुनक मिजाजी तरीके से नहीं चलाना चाहिए। उसे निहित स्वार्थ के गिरोहों से मुक्त रखते हुए लोकतांत्रिक रूप देना चाहिए, जो वे नहीं कर पा रही हैं।
 बंगाल का शाक्त समाज देवी का उपासक है। वह उनकी विजय भी देखना चाहता है। वह आसुरी शक्तियों के नियंत्रित संहार के लिए दुर्गा का आह्वान करता है लेकिन काली की सर्वसंहारक प्रवृत्तियों को शांत करने के लिए उन्हें भी पूजता है। पर वह दुर्गा को उसी तरह थोड़े समय के लिए स्थापित करता है जिस तरह महाराष्ट्र का समाज विघ्नविनाशक गणेश को करता है। वह दुर्गा को हमेशा नहीं रखता बल्कि थोड़े दिनों में आंसुओं के साथ उनका विसर्जन कर आता है। अगर लोकतंत्र को एक युद्ध मानकर दुर्गा और काली के बीझ झूल रही ममता बनर्जी शासन करने के लिए नया अवतार नहीं लेतीं तो क्या पता बंगाल उन्हें भी उसी विरासत का हिस्सा बना दे

आदिवासियों को चाहिए आंबेडकर




अरुण कुमार त्रिपाठी




बस्तर के जंगलों से सुकमा के  अगवा कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर लौटे डा ब्रह्म देव शर्मा ने जब दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों से बातचीत करनी चाही तो फिर वही--- आना गावें आन भवाना गावें आन--- वाली स्थिति उपस्थित थी। डा शर्मा बार-बार कह रहे थे कि आदिवासियों की नाराजगी का प्रमुख कारण उनसे विधिवत संवाद कायम न किया जाना है। उनके साथ सालों से किए गए वादों को लगातार तोड़ा गया है और जब उनके शोषण में हस्तक्षेप करने दादा लोग(माओवादी) पहुंच गए तो उनका दमन किया जा रहा है। लेकिन उनकी बात समझने के लिए न तो व्यावसायिक मीडिया के लोग तैयार थे, न ही वे लोग जो माओवाद से सहानुभूति रखते हैं। एक तरफ पत्रकार पूछ रहे थे कि आखिर डील क्या हुई और उससे रमन सिंह क्यों मुकर गए तो दूसरी तरफ यह पूछा जा रहा था कि क्या इससे आपरेशन ग्रीन हंट रुक गया और 13 दिनों में जो युद्धविराम कायम हुआ उसके कितने समय तक चलने की उम्मीद है। कुछ मिलाकर हार जीत और लेनदेन का हिसाब किताब मांगा जा रहा था। किसी ने पूछा कि आपने आपरेशन ग्रीन हंट देखा या नहीं, तो किसी ने पूछा कि आप सलवा जुड़ूम से मिले क्या?  इन हास्यास्पद और विडंबनापूर्ण सवालों के बीच यह भी टिप्पणियां सुनने को मिलीं कि लगता है कि अगवा करना ही एक कारगर तरीका है।
डा शर्मा एक मध्यस्थ के नाते तात्कालिक बातों को छुपाते हुए दीर्घकालिक बातों को प्रकट करना चाहते थे और उसके लिए- टूटे वायदों का अनटूटा इतिहास- जैसी किताब भी बांट रहे थे लोग किताबें देख कर भी उनसे वैसे ही सवाल पूछ रहे थे। इस तरह की किताबें और साहित्य वे लंबे समय से बांट रहे हैं पर उनकी किसी भी प्रेस कांफ्रेस में उसमें दर्ज बुनियादी मुद्दों पर चर्चा नहीं होती। पचहत्तर पार कर चुके बीडी शर्मा मजाक में ही लेकिन दुख के साथ यह कहते रहते हैं कि लगता है लोग मेरे जीते जी मेरी बात नहीं सुनेंगे और जब सुनेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी क्योंकि आदिवासी इस समय वैश्वीकरण के खिलाफ सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं और इसमें उनके साथ वास्तव में कोई नहीं है। धोती कुर्ता पहनने वाले डा बीडी शर्मा देश के उन गिने चुने आईएएस अधिकारियों में रहे हैं जिनमें ईमानदारी , विव्दता और जनसरोकारों का अद्भुत समन्वय है। उससे भी बड़ी बात है कि उन्होंने अपने को देश के आदिवासी समाज से उसी तरह एकाकार कर लिया है जिस तरह डा भीमराव आंबेडकर ने दलित मसलों के साथ कर लिया था। वे बस्तर के कलेक्टर रहे हैं और उस दौरान उन्होंने आदिवासी लड़कियों के दैहिक शोषण के खिलाफ सामाजिक अभियान चलाकर नौकरशाही को चौंका दिया था। उन्होंने एक पंचायत बुलाकर उन अफसरों की शादी कराने का फैसला करा दिया था जिन्होंने आदिवासी लड़कियों का शोषण किया था। इसी सिलसिले में 1986 में उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त के तौर पर उसकी 28 वीं और 29 वीं रपट में भारत को इंडिया, भारत और हिंदुस्तनवा जैसी तीन श्रेणियों में बांटकर देश की आंखें खोल दी थीं। उस तरह की रपटों और उनके सहयोग के कारण ही देश में नर्मदा बचाओ जैसा आंदोलन खड़ा हुआ और देश में चल रहे पर्यावरण और स्थानीय आबादी के आंदोलन को बल मिला था।
लेकिन जब देश ने उन सवालों से आंखें मूंद ली हैं और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के मौजूदा अध्यक्ष पीएल पूनिया महज आरक्षण की नीति में ही सारा समाधान देखते हैं तब फिर एक मौलिक दृष्टि की दरकार हो रही है। सबसे पहली जरूरत तो अनुसूचित जातियों के साथ अनुसूचित जनजातियों को संबद्ध करने के नुकसान को पहचानने की है। दलित बुद्धिजीवी ऐसा अक्सर करते हैं लेकिन उससे उनका तो फायदा हो जाता है पर आदिवासियों की स्थिति जस की तस रहती है। एक साथ संबद्ध किए जाने की इस नीति ने पहली श्रेणी यानी दलितों को तो लाभान्वित किया लेकिन आदिवासियों को नुकसान पहुंचाया। बल्कि कई जगहों पर तो दूसरे की कीमत पर पहली श्रेणी ने तरक्की की है, यह बात कुछ अध्ययनों में सामने आई है। अगर ऐसा न हुआ होता तो आदिवासी वजूद की लड़ाई न लड़ते और दलित देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने का सपना न देखते। डा आंबेडकर व्दारा लिखे गए भारतीय संविधान और उसके पीछे काम करने वाले आधुनिकतावादी नजरिए ने एक तरफ आदिवासियों से उनकी स्वायत्तता छीनी और दूसरी तरफ उन्हें उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया। रोचक बात यह है कि आंबेडकर ने अछूतों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे घुमंतू और बसे हुए कबीलों के युद्ध के कारण पैदा हुए। जो लोग हार गए उन्हें बसे हुए कबीलों ने अपनी रक्षा के लिए तैनात कर लिया। इसके उदाहरण के लिए वे महार जाति का उल्लेख करते हैं।
 उनके वर्णन में आदिवासी समुदाय आपस में लड़ते रहने वाला और लूटपाट करने वाला समुदाय होता है। इस नजरिए ने आदिवासियों को सभ्य बनाने और उनके भीतर शांति कायम करने के लिए उन पर बाहर से तमाम कानून थोपने का रास्ता साफ किया। हालांकि वेरियर एल्विन और सब आल्टर्न इतिहासकारों का आदिवासियों के बारे में नजरिया इससे काफी अलग था। एल्विन जहां उन्हें एक सभ्य और व्यवस्थित समाज बताते थे, वहीं सब-आल्टर्न उन्हें एक क्रांतिकारी समाज की संज्ञा देते हैं। अपनी इसी क्रांतिकारिता के कारण अंग्रेजों से जितनी लंबी और उग्र लड़ाई आदिवासियों ने लड़ी है उतनी शायद दलित समुदाय ने नहीं लड़ी।
एल्विन की इसी व्याख्या को बढ़ाते हुए बीडी शर्मा कहते हैं कि आदिवासियों की सोच और कथित सभ्य समाज की सोच में काफी फर्क है। आदिवासी अपने को नौकर मानने को तैयार  नहीं होता क्योंकि वह तो मालिक रहा है। वह तो कहता है कि-- धरती भगवान ने बनाई, हम भगवान के बेटे हैं, यह बीच में सरकार कहां से आई। सोच के इन दो छोरों के बावजूद  संविधान की पांचवीं अनुसूची में यह व्यवस्था की गई कि अगर राज्यपाल चाहे तो भारत के किसी भी कानून को आदिवासी इलाकों में लागू होने से रोक सकता है तो उसके पीछे उन्हें महत्व देने का ही भाव था। लेकिन उनकी स्वशासन और स्वायत्तता की प्रवृत्ति को बचाने की यह कोशिश भी बेकार गई क्योंकि किसी राज्यपाल ने ऐसा कभी नहीं किया। उल्टे उदारीकरण के साथ आई नई खनन और उद्योग नीति ने तो  पांचवीं अनुसूची का मजाक बना कर रख दिया। आदिवासी स्वायत्ता को बचाने के लिए नेहरू ने पंचशील की नीति लागू की लेकिन वह भी जल्दी ही दरकिनार कर दी गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में जो आबकारी नीति बनाई उसकी भी आज धज्जियां उड़ रही हैं और आज बाहरी शराब की दुकानें धड़ल्ले से आदिवासी इलाकों में चल रही हैं।
इसी तरह आदिवासी स्वशासन के लिए भूरिया कमेटी की रपट लागू होने का इंतजार करती रही और जब 1996 में पेसा कानून बना तो काफी उम्मीद जगी। पेसा कानून के तहत हर ग्राम सभा को अपनी परंपरा, सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया और यह भी माना गया कि वह विवादों का निपटारा अपने पारंपरिक तरीके से कर सकेगी। पेसा कानून ने आदिवासी इलाकों में अद्भुत उत्साह का संचार किया था। नारा लगा मावा नाटे मावा राज यानी हमारे गांव में हमारा राज। लोकसभा से ऊंची ग्राम सभा। जगह जगह जश्न मनाए जाने लगे और तमाम नेता व अफसर पूछने लगे कि अब हमारी क्या जरूरत रह जाएगी ?  पर बाद में यह कह कर उस कानून को बेकार कर दिया गया कि यह एक केंद्रीय कानून है और संविधान का हिस्सा नहीं, इसलिए इसे ज्यादा दूर तक नहीं खींचा जा सकता। विडंबना देखिए कि आज कभी एनसीटीसी, तो कभी लोकपाल के नाम पर स्वायत्तता का नारा बुलंद कर रहे राज्यों के मुख्यमंत्री कहीं भी आदिवासी स्वायत्तता की मांग नहीं कर रहे हैं। न तो उन्हें पेसा कानून के तहत स्वायत्तता प्राप्त ग्राम सभा पसंद है, न ही पांचवी अनुसूची का मजबूत होना। इस बारे में भारत को राज्यों का संघ बताने वाले तमाम संविधानविद भी खामोश हैं। आखिर यह कैसी स्वायत्तता है जहां देश के मूल जनों के लिए सम्मान ही नहीं है?   
दरअसल हमारा संविधान आदिवासियों की सोच और उनकी संस्कृति को ध्यान में रखकर बनाया ही नहीं गया है। यही वजह है कि आजादी के 65 वर्षों के बाद जब देश की तमाम जातियां फल फूल रही हैं, तब वे अपने ही देश में अस्तित्व के लिए एक प्रकार का युद्ध लड़ रहे हैं। उनका यह युद्ध बड़ी पूंजी के हित के लिए काम कर रही अपनी सरकारों से है और इस लड़ाई में आज भले माओवादी उनके साथ हैं लेकिन हकीकत में वे भी उनके साथ लंबी दूरी तक नहीं रहने वाले हैं। उन्होंने  तो आदिवासी इलाकों को माओवादी विचारों की प्रयोगशाला रखा है जिसे आदिवासी न तो समझता है न ही उस पर लंबे समय तक चलना चाहता है। लेकिन इस बात को समझते हुए भी न समझने में ही हमारी राजनीति की भलाई है। क्योंकि वह अगर आदिवासियों को माओवादियों से अलग कर देगी तो संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति में सफल नहीं हो पाएगी।
भारतीय संविधान और राजनीतिक प्रणाली की इसी विडंबना को महसूस करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकर रामचंद्र गुहा भी कहते हैं कि आदिवासियों को अपना आंबेडकर चाहिए। जाहिर सी बात है कि अगर पहले वाले और दलितों के लिए लड़ने वाले आंबेडकर से काम चलता तो वे वैसा न कहते। उन्हें वैसा नेता और विव्दान चाहिए जो या तो संविधान को उनके लिए लिखे या फिर उसमें उनके लिए अहम स्थान बनवाए। वैसा व्यक्ति उनके भीतर का होगा या बाहर का यह तो समय बताएगा। लेकिन उसकी निष्ठा कम से कम इस आधुनिकतावादी सभ्य समाज के प्रति नहीं होनी चाहिए। अगर वैसी होगी तो वह उनके साथ उसी तरह न्याय नहीं कर पाएगा जैसा आंबेडकर सहित हमारे स्वाधीनता संग्राम के तमाम नेता नहीं कर पाए। जाहिर है आदिवासियों का संघर्ष उस सोच पर गहरे सवाल खड़ा करता है जो संविधान को सबसे पवित्र दस्तावेज मानते हुए उसकी रक्षा की सौगंध लेते हैं। देश और आदिवासी समाज के हित में हमें यह बदलाव करने होंगे और इसमें वेरियर एल्विन और बीडी शर्मा जैसे अध्येताओं और सिद्धांतकारों के उन विचारों का भारी योगदान होगा जो उन्होंने मुख्यधारा से हटकर आदिवासियों के साथ खड़े होकर तैयार किए हैं।




  




एटमी पाखंड के दौर में




अरुण कुमार त्रिपाठी




डा राममनोहर लोहिया ने कहा था कि बीसवीं सदी की दो बड़ी उपलब्धियां हैं। एक एटम बम और दूसरा महात्मा गांधी। सदी के अंत तक दोनों में से एक ही बचेगा। लेकिन विडंबना देखिए कि इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत जाने के बाद भी दुनिया में दोनों बचे हुए हैं। यही इस दौर का सबसे बड़ा पाखंड है। हम एटम बम भी बनाते हैं और समय समय पर महात्मा गांधी को भी याद कर लेते हैं। इसके लिए वह समय उतना दोषी नहीं है जब इन दो विचारों का आविष्कार हो रहा था। इसके लिए वह समय ज्यादा दोषी है जब मानव सभ्यता के लिए दोनों की अहमियत शीशे की तरह साफ हो चुकी है। महात्मा गांधी और उनका अहिंसा का दर्शन उस समय पैदा हुआ था जब मानव सभ्यता विश्व युद्ध के रूप में अपने जीवन से सबसे विनाशकारी दौर से गुजर रही थी। गांधी ने दोनों विश्वयुद्धों को देखने के बाद अपने अहिंसा के सिद्धांत में दृढ़ता प्रकट की थी। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा की थी और दूसरे विश्वयुद्ध में अपने देश की आजादी के लिए उनके खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ दिया था। संयोग से वे उस समय जीवित थे अमेरिका ने जापान से हिरोशिमा और नागासाकी नाम के शहरों पर पहली बार परमाणु बम का हमला किया था। अगस्त 1945 में हुए उस हमले के बाद महात्मा गांधी की टिप्पणी थी-----जब मैंने पहली बार सुना एटम बम ने हिरोशिमा को मिटा दिया है तो मेरे शरीर में कोई हरकत ही नहीं हुई। उल्टे मैंने खुद से कहा—अब अगर दुनिया अहिंसा को नहीं अपनाती तो मानव जाति की खुदकुशी सुनिश्चित है।
विडंबना है कि आज महात्मा गांधी का हवाला देते हुए एटमी निरस्त्रीकरण के प्रयास भी किए जाते हैं और एटम बम बनाने के भी। यही वजह है कि उस समय की तुलना में एटमी हथियारों का जखीरा हजारों गुना हो चुका है जब उनका नाम नहीं लिया जाता था। इस पाखंड में पूरी दुनिया के साथ गांधी का देश भारत भी शामिल है , फर्क यही है कि भारत गांधी का नाम कुछ ज्यादा जोर से लेता है। हमारी सरकार एक तरफ कुदनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ आंदोलन कर रही जनता को चौतरफा घेर कर उनका दमन करती है तो दूसरी तरफ नाभिकीय हथियारों से सुसज्जित पनडुब्बी आईएनएस चक्र के सफल जलावतरण के बाद अग्नि-5 का सफल परीक्षण करती है। यह सभी हमारे लिए जश्न के विषय हैं। कहीं प्रशासन के लिए तो कहीं वैज्ञानिकों के लिए। बधाइयां दी जाती हैं मिठाइयां बांटी जाती हैं। दावा किया जाता है कि हमारी एटमी मिसाइल की जद में अब चीन की राजधानी पेईचिंग ही नहीं यूरोप भी आ गया है। अपने को पहले से अधिक सुरक्षित और पड़ोसी को पहले से ज्यादा असुरक्षित बताने वाला यह आत्मविश्वास उस समय फुस्स हो जाता है जब बताया जाता है कि हमारी मिसाइल की मारक क्षमता महज पांच हजार किलोमीटर (जो अपने में कम नहीं है) जबकि पाकिस्तान और चीन की क्षमताएं तो दस हजार से भी ऊपर हैं। तकनीकी शब्दावली में बताया जाता है कि अरे यह तो आईसीबीएम यानी अंतरमहाव्दीपीय नहीं मध्यम रेंज की मिसाइल है। फिर इस फिसलते आत्मविश्वास को रोकने के लिए दावा किया जाता है कि हमारी अगली पीढ़ी की मिसाइल वही होगी। आखिर हम अग्नि-1 की 700 किलोमीटर की क्षमता से अग्नि-5 में पांच हजार किलोमीटर तक आए तो हैं।
एटमी पाखंड का यह माहौल एक देश से दूसरे देश, एटमी हथियारों वाले देश से लेकर गैर एटमी हथियारों वाले देशों और राष्ट्रीय संस्थाओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तक फैला हुआ है। यह वैसा ही सिलसिला है जैसे जातिवाद को खत्म करते करते तमाम जातियां जातिवादी हो जाती हैं और उन्हीं जातियों की तरह आचरण करने लगती हैं जिनके खिलाफ वे आंदोलन करती हैं। या फिर सांप्रदायिकता को मिटाने के बहाने तमाम समुदाय उन्हीं की तरह सांप्रदायिक हो जाते हैं जिनके खिलाफ वे जंग लड़ने का एलान करते हैं। या कुछ वैसा ही होता है जैसे रंगभेद से लड़ने का दावा करने वाली राष्ट्रीयताएं गोरों की ही संस्कृति और व्यवस्था अपना लेती हैं।
दुनिया के पांच परमाणु हथियार संपन्न देशों के एटमी पाखंड से लड़ते लड़ते भारत ने पहले 1975  फिर 1998 में परमाणु विस्फोट कर अपने दोहरेपन को प्रदर्शित किया और बाद में 2009 में अमेरिका से परमाणु करार कर एक चक्र पूरा कर दिया। उसके बाद दुनिया में भारत के परमाणु हथियारों को सुरक्षित मानना, इजराइल के डिमोना संयंत्र की चर्चा न करना और उत्तरी कोरिया और ईरान पर दुनिया भर में शोर मचाने की अंतरराष्ट्रीय राजनीति शुरू हो गई है। उसी नजरिए का नतीजा है कि उत्तर कोरिया ने जो उपग्रह 13 अप्रैल को छोड़े जाने के बाद ही हिर पड़ा उस पर काफी हल्ला मचा था और भारत के सफल मिसाइल परीक्षण को ज्यादा तूल नहीं दिया गया। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि मोदाराकी बनूनू नाम के जिस इजराइली ने अपने देश के डिमोना नाभिकीय संयंत्र का चित्र लेकर प्रकाशित करना चाहा उसे देशद्रोही बताकर जेल में ठूंस दिया गया। जबकि इजराइल अपने को लोकतांत्रिक देश होने का दावा करता है।
उधर अपने परमाणु कार्यक्रम के कारण चौतरफा दबावों में घिरा ईरान लगातार पांच एटमी देशों के पाखंड को उजागर करता रहता है। वह साफ तौर पर पूछता है कि आखिर फ्रांस औक ब्रिटेन को एटमी हथियारों की क्या जरूरत है। उनकी सुरक्षा को किससे खतरा है। वह अमेरिका की कथनी और करनी के फर्क को जाहिर करता है। परमाणु हथियार वाले देशों के इस पाखंड की एटमी अप्रसार संधि के बाकी हस्ताक्षरी देश भी समय समय पर आलोचना करते रहते हैं। ब्राजील के नेतृत्व मे काम करने वाले सात देशों के न्यू एजेंडा कोएलिशन का कहना है कि एनपीटी के कारण अप्रसार भले रुका है लेकिन निरस्त्रीकरण संभव नहीं हो पा रहा है।
दरअसल दुनिया एलएस़डी और एमएसडी जैसे दो सिद्धांतों के बीच फंसी है। संयुक्त राष्ट्र की आईसीजे जैसी संस्था भी तमाम देशों की तरह लाजिक आफ सेल्फ डिटरेंस के सिद्धांत में यकीन करती है। यानी हथियारों का एटमी जखीरा जमा करते जाने वाले देश एक दूसरे पर हमले नहीं करते। आखिर अगस्त 1945 के बाद दुनिया पर कहां एटमी हमला हुआ। दूसरी तरफ म्यूचुअल सेल्फ डिस्ट्रैक्शन का सिद्धांत है जिस पर अमेरिका और रूस चल रहे हैं। यह सिलसिला दो दशक पहले शुरू हुआ था और अब नए संदर्भ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच चल रहा है। एक तरफ अमेरिका के तमाम विशेषज्ञ कहते हैं कि स्टार्ट नाम की यह संधि तो रूस के पक्ष में झुकी हुई है तो दूसरी तरफ ओबामा मानते हैं कि अमेरिका भी संधि की भावना पर खरा नहीं उतरा है। अमेरिका के पास 1950 एटमी मिसाइलें बताई जाती हैं तो रूस के पास 2430।
एलएसडी और एमएसडी के बीच फंसी दुनिया में उन देशों का भी पक्ष है जिन्हें एटमी मिसाइलों की सुरक्षा छतरी मिली हुई है। ऐसे देशों की संख्या करीब 30 है। वे नहीं चाहते कि यह सुरक्षा कम हो क्योंकि एक तरफ दुनिया में एटमी आतंकवाद का खतरा है तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय टकराव अभी भी खत्म नहीं हुए हैं। दुनिया के संसाधनों को लूटने की साम्राज्यवादी प्रवृति क्षेत्रीय टकराव को खत्म नहीं होने देना चाहती और आतंकवाद के लिए नया माहौल बनाती है। इसी हकीकत और पाखंड के बीच वैश्विक संस्थाओं की अहमियत और वैश्विक स्तर पर एटमी हथियारों और ऊर्जा के खिलाफ समझ और आंदोलन की अहमियत बढ़ रही है। जहां अमेरिका एटमी हथियार घटाने का वादा कर रहा है और बी-53 जैसे परमाणु बम को समाप्त किया है वहीं एटमी प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण भी कर रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि आधुनिकीकृत हथियारों के खतरे पहले से ज्यादा बड़े हैं।
यहीं पर महात्मा गांधी का वह कथन फिर मौजूं हो जाता है जो उन्होंने नागासाकी हिरोशिमा के बाद कहा था---
परमाणु बम की इस बिकराल त्रासदी की उचित अर्थ यही है कि इसे उसी तरह जवाबी बम से नहीं खत्म किया जा सकता जिस तरह हिंसा को प्रति हिंसा से नहीं मिटाया जा सकता। मनुष्य जाति को सिर्फ अहिंसा के माध्यम से हिंसा के चक्र से बाहर आना होगा। हिंसा को सिर्फ प्रेम से जीता जा सकता है। जवाबी घृणा न सिर्फ घृणा की सतह  बल्कि उसकी गहराई को भी बढ़ाती है।
भारत आजाद होने के कुछ महीने बाद 16 नवंबर 1947 को फिर वे फिर कहते हैं ---
एटम बम के इस युग में विशुद्ध अहिंसा ही हिंसा की चालाकियों को नाकाम कर सकती है।
हम एटमी पाखंड के युग में जरूर हैं लेकिन पाखंड में थोड़ा बहुत आदर्श होता है। उम्मीद की जाती है वह आदर्श बढ़ेगा, गांधी बचेंगे और बम मिटेगा।