Wednesday, May 23, 2012


माटी में मिलती ममता



अरुण कुमार त्रिपाठी




कैसी मशाल लेकर चले तीरगी में आप, जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही। लगता है दुष्यंत कुमार का यह शेर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर ठीक बैठ रहा है। उम्मीद की जा रही थी कि वे मार्क्सवादियों की वाममोर्चा सरकार का विकल्प पेश करने के लिए उनसे भी ज्यादा वामपंथी हो रही हैं और वे एक प्रकार से ऊंची छलांग लगा रही हैं। लेकिन उन्होंने ऊंची और लंबी छलांगों के विपरीत मार्क्सवादी शासन के अतीत में ऐसी छोटी छलांगें लगानी शुरू कर दी हैं जहां उन्हें बार बार बच्चों के स्लाइड गेम की तरह पतन का आनंद प्राप्त हो रहा है। उनकी कार्यशैली को देखकर एक तरफ इंदिरा गांधी के आपातकाल और जयललिता व मायावती के दमनकारी शासन की यादें ताजा हो जाती हैं तो दूसरी तरफ जार्ज आरवेल के उपन्यास 1984 का स्मरण होने लगता है। फर्क यही है कि 1984 में कम्युनिस्टों की सर्वसत्तावादी तानाशाही के दौरान नागरिक स्वतंत्रता पर बिग ब्रदर ने पहरा लगा रखा था और यहां कम्युनिस्टों को सत्ता से हटाकर आई तृणमूल कांग्रेस की बड़ी दीदी ने अभिव्यक्ति की आजादी पर निगरानी की ठान रखी है। उस उपन्यास में हर घर में टेलीस्क्रीन लगा हुआ था ताकि पार्टी और सरकार विरोधी गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके, जबकि यहां ममता बनर्जी के सहयोगी तमाम सोशल मीडिया को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए उस पर आक्रामक निगरानी कर रहे हैं।
यही कारण है कि आजकल कोलकाता में हरमद थेके उन्मद का जुमला चल निकला है। मतलब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की हरमद वाहिनी यानी दमनकारी गुंडों की फौज गई तो तृणमूल की पागलों की फौज आ गई है। यह जुमला जिस तरह से गढ़ा गया है उससे साफ है कि इसके पीछे बंगाल के बुद्धिजीवियों का दिमाग है और यह हैरानी की बात नहीं है उनके खिलाफ बुद्धिजीवियों के प्रदर्शन होने लगे हैं। प्रसिद्ध लेखिका और जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी जब कहती हैं-  तानाशाही कभी सफल नहीं होती। वह न तो हिटलर के जर्मनी में कामयाब हुई, न ही मुसोलिनी के इटली में- तो उनकी ही नहीं उनके पीछे खड़ी बंगाल के बौद्धिकों, कलाकारों और रचनाकारों की पूरी बिरादरी की नाराजगी का अहसास होता है। हालांकि महाश्वेता देवी की नाराजगी मीडिया और मध्यवर्ग की तरह हाल में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिषेक महापात्र और माइक्रोबायलाजिस्ट पार्थ सारथी राय की गिरफ्तारी से ही नहीं शुरू हुई है। उनकी नाराजगी उसी समय से चालू हो गई थी जब ममता बनर्जी ने माओवादियों से छल करते हुए लालगढ़ में कार्रवाई की और माओवादी नेता किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव को मरवा दिया। यह बात जगजाहिर है कि ममता बनर्जी ने पहले लोकसभा और बाद में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए माओवादियों का सहारा लिया था। बल्कि जिस सिंगुर और नंदीग्राम संघर्ष के बाद उनकी राजनीति में निर्णायक मोड़ आया उसमें तृणमूल कांग्रेस की तरह ही माओवादियों की भी  भागीदारी बताई जाती है।
लेकिन ममता ने माओवाद समर्थकों को ही नहीं नाराज किया। आमरी अस्पताल में अग्निकांड के बाद जिस तरह से उसके मालिकों की गिरफ्तारी हुई, उससे वहां का पूंजीपति वर्ग भी चिढ़ गया। टाटा की नैनो परियोजना को भगाए जाने और प्रियंका टोडी के मामले में रिजवानुर का पक्ष लेने के बाद वह पहले से ही नाराज था। नाराजगी का यह दायरा तब और बढ़ गया जब ममता ने अपने खिलाफ लिखने वाले तमाम अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों में खरीदे जाने पर रोक लगा दी। उसी के साथ रूस की अक्तूबर क्रांति और मार्क्सवाद को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया। अखबारों को हटाने के लिए दलील दी गई कि सरकार इस प्रकार से मझोले अखबारों को प्रोत्साहित करना चाहती है और पाठ्यक्रम के लिए दलील दी गई कि सरकार महात्मा गांधी और नेहरू जैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को उचित जगह देना चाहती है।
ममता सरकार ने अपने प्रति नाराजगी का घेरा उस समय और बढ़ा लिया जब उन्होंने अपनी पार्टी के रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को आनन फानन में बर्खास्त करवा दिया और फिर दिनेश त्रिवेदी, मुकुल राय के साथ दीदी के कार्टून को ई मेल करने वाले प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को नारी की गरिमा को आहत करने और मानहानि के आरोप में गिरफ्तार करवा दिया। हद तो तब हो गई जब झुग्गी झोपड़ी वालों के विस्थापन के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले वैज्ञानिक पार्थ सारथी राय को पकड़ लिया गया और उनके पक्ष में नाम चामस्की जैसे बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया। जबकि पार्थ सारथी ने सिंगुर और नंदीग्राम जैसे आंदोलनों में भी हिस्सा लिया था।
विरोधियों के दमन की इन कार्रवाइयों के कारण वाममोर्चा के 34 साल के शासन के पतन के बाद पश्चिम बंगाल में जो उम्मीदें हरी हुई थीं वे साल भर में ही मुरझा रही हैं। पर क्या इन सारी स्थितियों का ठीकरा ममता बनर्जी के सिर ही फोड़ा जाए या उसके लिए उन ताकतों को भी जिम्मेदार माना जाए जो ममता बनर्जी का अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रही थीं?  वे ताकतें वाममोर्चा सरकार को तो हटाना चाहती थीं लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में उसी की नीतियों को लाना चाहती थीं। वे चाहती थीं कि ममता बनर्जी केंद्र सरकार पर उदारीकरण को तेज करने के लिए दबाव डालें न कि वामपंथियों की तरह उसे रोकने के लिए। हालांकि दिनेश त्रिवेदी के प्रति ममता बनर्जी की नाराजगी को महज अहम का टकराव बताया गया पर वजह इतनी ही नहीं थी। दरअसल दिनेश त्रिवेदी प्रणव मुखर्जी और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के इशारे पर विश्व बैंक प्रेरित योजना आयोग का एजेंडा लागू कर रहे थे। जिसके तहत रेलवे की तरक्की का रास्ता निजीकरण से ही होकर गुजरता है।इसलिए जहां वह ताकतवर वर्ग ममता को तरह से तरह से बदनाम करना चाहता है वहीं वे उसका मुकाबला रणनीतिक तरीके से करने के बजाय आंख मूंद कर करना चाहती हैं और ऐसा करते हुए वे दमन के दुष्चक्र में फंसती जाती हैं।
लेकिन ममता का यह कहना आंशिक तौर पर सही है कि उनके रहन सहन और गरीब परिवेश से आने के कारण बंगाल का भद्रलोक उन्हें हिकारत की नजर से देखता है जबकि गरीब और ग्रामीण जनता अभी भी उनके साथ है। आखिर उनके संघर्षों को देखकर यही भद्रलोक उन्हें देवी भी मानने लगा था। लेकिन कोई भी समाज ऐसा नेता नहीं चाहेगा जो उसी से लड़ने लगे। यह बात सही है कि मार्क्सवादियों ने अपने 34 साल के शासन में अपने विरोधियों को हाशिए पर रखा और उसके लिए पार्टी के ढांचे का भरपूर इस्तेमाल किया। उन्होंने ममता बनर्जी को निजी तौर पर भी समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन वे अपने समाज से लड़ते हुए नहीं दिखते थे और जब दिखे तो तबाह हुए। सिंगुर और नंदीग्राम उसके उदाहरण हैं।
मार्क्सवादी संभवतः यह समझते थे कि बंगाल की सामाजिक सांस्कृतिक विरासत क्या है ? उसमें हमेशा लड़ा ही नहीं जाता बल्कि कभी ठहर कर प्रेम और हंसी मजाक भी किया जाता है और एक दूसरे को सहा जाता है। इसकी झलक रवींद्र नाथ टैगोर से लेकर महाश्वेता देवी तक में दिखाई पड़ती है। महाश्वेता देवी ने जब बुद्धदेव को बुद्धूदेव कहा तो उन्हें सहना पड़ा। इसीलिए मार्क्सवादियों ने शुरू में वर्गशत्रु तलाशे और बाद में उन्हीं से हंसना खेलना शुरू कर दिया। उन्होंने तृणमूल के नेताओं की तरह यह नहीं कहा कि उनसे शादी विवाह बंद कर दो। वे धर्मनिरपेक्षता का दावा भी करते थे और दुर्गापूजा कमेटियों में भी रहते थे।

किसी भी शासक के लिए बहुत जरूरी होता है अपने पूर्ववर्ती की कमियों से परहेज करना और उसकी अच्छाइयों को ग्रहण करना। ममता बनर्जी मार्क्सवादियों की तरह पार्टी का संगठित गिरोह जैसा ढांचा नहीं बना सकतीं और उन्हें बनाना भी नहीं चाहिए। लेकिन उन्हें पार्टी और सरकार को तुनक मिजाजी तरीके से नहीं चलाना चाहिए। उसे निहित स्वार्थ के गिरोहों से मुक्त रखते हुए लोकतांत्रिक रूप देना चाहिए, जो वे नहीं कर पा रही हैं।
 बंगाल का शाक्त समाज देवी का उपासक है। वह उनकी विजय भी देखना चाहता है। वह आसुरी शक्तियों के नियंत्रित संहार के लिए दुर्गा का आह्वान करता है लेकिन काली की सर्वसंहारक प्रवृत्तियों को शांत करने के लिए उन्हें भी पूजता है। पर वह दुर्गा को उसी तरह थोड़े समय के लिए स्थापित करता है जिस तरह महाराष्ट्र का समाज विघ्नविनाशक गणेश को करता है। वह दुर्गा को हमेशा नहीं रखता बल्कि थोड़े दिनों में आंसुओं के साथ उनका विसर्जन कर आता है। अगर लोकतंत्र को एक युद्ध मानकर दुर्गा और काली के बीझ झूल रही ममता बनर्जी शासन करने के लिए नया अवतार नहीं लेतीं तो क्या पता बंगाल उन्हें भी उसी विरासत का हिस्सा बना दे

2 comments:

Unknown said...

सर एक कहावत है, "काज़ल की कोठारी में कैसो भी सयानो जाये, एक सींक काज़ल की लागी पय लागी है"....दरअसल यह राजनीति यानी, कुर्सी का खेल ही कुछ ऐसा है कि, बड़े-बड़े लोग इसकी चुम्बकीये क्षमता को पचा नहीं पाते...कुर्सी प्राप्त करने के लिए फेविकौल पिडिलाईट का भरपूर प्रयोग करते हैं...मगर सत्ता मिलने के बाद दंभ का केमिकल लोचा इस मजबूती को भी धरासाई कर देता है...यानी टिकाउपन कि जो गलतफहमी होती है... उसकी अवधि नियमानुसार पांच साल ही होता है....वैसे भी हर दश क पर एकबार इतिहास बदलता है...ऐसा लोगों का मानना है....
अंकुर शुक्ला, पूर्व छात्र प्रिंट जर्नालिस्म (जिम्सी)

Unknown said...
This comment has been removed by the author.