Wednesday, May 23, 2012


एटमी पाखंड के दौर में




अरुण कुमार त्रिपाठी




डा राममनोहर लोहिया ने कहा था कि बीसवीं सदी की दो बड़ी उपलब्धियां हैं। एक एटम बम और दूसरा महात्मा गांधी। सदी के अंत तक दोनों में से एक ही बचेगा। लेकिन विडंबना देखिए कि इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत जाने के बाद भी दुनिया में दोनों बचे हुए हैं। यही इस दौर का सबसे बड़ा पाखंड है। हम एटम बम भी बनाते हैं और समय समय पर महात्मा गांधी को भी याद कर लेते हैं। इसके लिए वह समय उतना दोषी नहीं है जब इन दो विचारों का आविष्कार हो रहा था। इसके लिए वह समय ज्यादा दोषी है जब मानव सभ्यता के लिए दोनों की अहमियत शीशे की तरह साफ हो चुकी है। महात्मा गांधी और उनका अहिंसा का दर्शन उस समय पैदा हुआ था जब मानव सभ्यता विश्व युद्ध के रूप में अपने जीवन से सबसे विनाशकारी दौर से गुजर रही थी। गांधी ने दोनों विश्वयुद्धों को देखने के बाद अपने अहिंसा के सिद्धांत में दृढ़ता प्रकट की थी। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा की थी और दूसरे विश्वयुद्ध में अपने देश की आजादी के लिए उनके खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ दिया था। संयोग से वे उस समय जीवित थे अमेरिका ने जापान से हिरोशिमा और नागासाकी नाम के शहरों पर पहली बार परमाणु बम का हमला किया था। अगस्त 1945 में हुए उस हमले के बाद महात्मा गांधी की टिप्पणी थी-----जब मैंने पहली बार सुना एटम बम ने हिरोशिमा को मिटा दिया है तो मेरे शरीर में कोई हरकत ही नहीं हुई। उल्टे मैंने खुद से कहा—अब अगर दुनिया अहिंसा को नहीं अपनाती तो मानव जाति की खुदकुशी सुनिश्चित है।
विडंबना है कि आज महात्मा गांधी का हवाला देते हुए एटमी निरस्त्रीकरण के प्रयास भी किए जाते हैं और एटम बम बनाने के भी। यही वजह है कि उस समय की तुलना में एटमी हथियारों का जखीरा हजारों गुना हो चुका है जब उनका नाम नहीं लिया जाता था। इस पाखंड में पूरी दुनिया के साथ गांधी का देश भारत भी शामिल है , फर्क यही है कि भारत गांधी का नाम कुछ ज्यादा जोर से लेता है। हमारी सरकार एक तरफ कुदनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ आंदोलन कर रही जनता को चौतरफा घेर कर उनका दमन करती है तो दूसरी तरफ नाभिकीय हथियारों से सुसज्जित पनडुब्बी आईएनएस चक्र के सफल जलावतरण के बाद अग्नि-5 का सफल परीक्षण करती है। यह सभी हमारे लिए जश्न के विषय हैं। कहीं प्रशासन के लिए तो कहीं वैज्ञानिकों के लिए। बधाइयां दी जाती हैं मिठाइयां बांटी जाती हैं। दावा किया जाता है कि हमारी एटमी मिसाइल की जद में अब चीन की राजधानी पेईचिंग ही नहीं यूरोप भी आ गया है। अपने को पहले से अधिक सुरक्षित और पड़ोसी को पहले से ज्यादा असुरक्षित बताने वाला यह आत्मविश्वास उस समय फुस्स हो जाता है जब बताया जाता है कि हमारी मिसाइल की मारक क्षमता महज पांच हजार किलोमीटर (जो अपने में कम नहीं है) जबकि पाकिस्तान और चीन की क्षमताएं तो दस हजार से भी ऊपर हैं। तकनीकी शब्दावली में बताया जाता है कि अरे यह तो आईसीबीएम यानी अंतरमहाव्दीपीय नहीं मध्यम रेंज की मिसाइल है। फिर इस फिसलते आत्मविश्वास को रोकने के लिए दावा किया जाता है कि हमारी अगली पीढ़ी की मिसाइल वही होगी। आखिर हम अग्नि-1 की 700 किलोमीटर की क्षमता से अग्नि-5 में पांच हजार किलोमीटर तक आए तो हैं।
एटमी पाखंड का यह माहौल एक देश से दूसरे देश, एटमी हथियारों वाले देश से लेकर गैर एटमी हथियारों वाले देशों और राष्ट्रीय संस्थाओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तक फैला हुआ है। यह वैसा ही सिलसिला है जैसे जातिवाद को खत्म करते करते तमाम जातियां जातिवादी हो जाती हैं और उन्हीं जातियों की तरह आचरण करने लगती हैं जिनके खिलाफ वे आंदोलन करती हैं। या फिर सांप्रदायिकता को मिटाने के बहाने तमाम समुदाय उन्हीं की तरह सांप्रदायिक हो जाते हैं जिनके खिलाफ वे जंग लड़ने का एलान करते हैं। या कुछ वैसा ही होता है जैसे रंगभेद से लड़ने का दावा करने वाली राष्ट्रीयताएं गोरों की ही संस्कृति और व्यवस्था अपना लेती हैं।
दुनिया के पांच परमाणु हथियार संपन्न देशों के एटमी पाखंड से लड़ते लड़ते भारत ने पहले 1975  फिर 1998 में परमाणु विस्फोट कर अपने दोहरेपन को प्रदर्शित किया और बाद में 2009 में अमेरिका से परमाणु करार कर एक चक्र पूरा कर दिया। उसके बाद दुनिया में भारत के परमाणु हथियारों को सुरक्षित मानना, इजराइल के डिमोना संयंत्र की चर्चा न करना और उत्तरी कोरिया और ईरान पर दुनिया भर में शोर मचाने की अंतरराष्ट्रीय राजनीति शुरू हो गई है। उसी नजरिए का नतीजा है कि उत्तर कोरिया ने जो उपग्रह 13 अप्रैल को छोड़े जाने के बाद ही हिर पड़ा उस पर काफी हल्ला मचा था और भारत के सफल मिसाइल परीक्षण को ज्यादा तूल नहीं दिया गया। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि मोदाराकी बनूनू नाम के जिस इजराइली ने अपने देश के डिमोना नाभिकीय संयंत्र का चित्र लेकर प्रकाशित करना चाहा उसे देशद्रोही बताकर जेल में ठूंस दिया गया। जबकि इजराइल अपने को लोकतांत्रिक देश होने का दावा करता है।
उधर अपने परमाणु कार्यक्रम के कारण चौतरफा दबावों में घिरा ईरान लगातार पांच एटमी देशों के पाखंड को उजागर करता रहता है। वह साफ तौर पर पूछता है कि आखिर फ्रांस औक ब्रिटेन को एटमी हथियारों की क्या जरूरत है। उनकी सुरक्षा को किससे खतरा है। वह अमेरिका की कथनी और करनी के फर्क को जाहिर करता है। परमाणु हथियार वाले देशों के इस पाखंड की एटमी अप्रसार संधि के बाकी हस्ताक्षरी देश भी समय समय पर आलोचना करते रहते हैं। ब्राजील के नेतृत्व मे काम करने वाले सात देशों के न्यू एजेंडा कोएलिशन का कहना है कि एनपीटी के कारण अप्रसार भले रुका है लेकिन निरस्त्रीकरण संभव नहीं हो पा रहा है।
दरअसल दुनिया एलएस़डी और एमएसडी जैसे दो सिद्धांतों के बीच फंसी है। संयुक्त राष्ट्र की आईसीजे जैसी संस्था भी तमाम देशों की तरह लाजिक आफ सेल्फ डिटरेंस के सिद्धांत में यकीन करती है। यानी हथियारों का एटमी जखीरा जमा करते जाने वाले देश एक दूसरे पर हमले नहीं करते। आखिर अगस्त 1945 के बाद दुनिया पर कहां एटमी हमला हुआ। दूसरी तरफ म्यूचुअल सेल्फ डिस्ट्रैक्शन का सिद्धांत है जिस पर अमेरिका और रूस चल रहे हैं। यह सिलसिला दो दशक पहले शुरू हुआ था और अब नए संदर्भ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच चल रहा है। एक तरफ अमेरिका के तमाम विशेषज्ञ कहते हैं कि स्टार्ट नाम की यह संधि तो रूस के पक्ष में झुकी हुई है तो दूसरी तरफ ओबामा मानते हैं कि अमेरिका भी संधि की भावना पर खरा नहीं उतरा है। अमेरिका के पास 1950 एटमी मिसाइलें बताई जाती हैं तो रूस के पास 2430।
एलएसडी और एमएसडी के बीच फंसी दुनिया में उन देशों का भी पक्ष है जिन्हें एटमी मिसाइलों की सुरक्षा छतरी मिली हुई है। ऐसे देशों की संख्या करीब 30 है। वे नहीं चाहते कि यह सुरक्षा कम हो क्योंकि एक तरफ दुनिया में एटमी आतंकवाद का खतरा है तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय टकराव अभी भी खत्म नहीं हुए हैं। दुनिया के संसाधनों को लूटने की साम्राज्यवादी प्रवृति क्षेत्रीय टकराव को खत्म नहीं होने देना चाहती और आतंकवाद के लिए नया माहौल बनाती है। इसी हकीकत और पाखंड के बीच वैश्विक संस्थाओं की अहमियत और वैश्विक स्तर पर एटमी हथियारों और ऊर्जा के खिलाफ समझ और आंदोलन की अहमियत बढ़ रही है। जहां अमेरिका एटमी हथियार घटाने का वादा कर रहा है और बी-53 जैसे परमाणु बम को समाप्त किया है वहीं एटमी प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण भी कर रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि आधुनिकीकृत हथियारों के खतरे पहले से ज्यादा बड़े हैं।
यहीं पर महात्मा गांधी का वह कथन फिर मौजूं हो जाता है जो उन्होंने नागासाकी हिरोशिमा के बाद कहा था---
परमाणु बम की इस बिकराल त्रासदी की उचित अर्थ यही है कि इसे उसी तरह जवाबी बम से नहीं खत्म किया जा सकता जिस तरह हिंसा को प्रति हिंसा से नहीं मिटाया जा सकता। मनुष्य जाति को सिर्फ अहिंसा के माध्यम से हिंसा के चक्र से बाहर आना होगा। हिंसा को सिर्फ प्रेम से जीता जा सकता है। जवाबी घृणा न सिर्फ घृणा की सतह  बल्कि उसकी गहराई को भी बढ़ाती है।
भारत आजाद होने के कुछ महीने बाद 16 नवंबर 1947 को फिर वे फिर कहते हैं ---
एटम बम के इस युग में विशुद्ध अहिंसा ही हिंसा की चालाकियों को नाकाम कर सकती है।
हम एटमी पाखंड के युग में जरूर हैं लेकिन पाखंड में थोड़ा बहुत आदर्श होता है। उम्मीद की जाती है वह आदर्श बढ़ेगा, गांधी बचेंगे और बम मिटेगा।        
    

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