Monday, June 11, 2012
Sunday, June 3, 2012
Wednesday, May 23, 2012
अरुण कुमार त्रिपाठी
बस्तर के जंगलों से सुकमा के अगवा कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर लौटे डा ब्रह्म देव शर्मा ने जब दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों से बातचीत करनी चाही तो फिर वही--- आना गावें आन भवाना गावें आन--- वाली स्थिति उपस्थित थी। डा शर्मा बार-बार कह रहे थे कि आदिवासियों की नाराजगी का प्रमुख कारण उनसे विधिवत संवाद कायम न किया जाना है। उनके साथ सालों से किए गए वादों को लगातार तोड़ा गया है और जब उनके शोषण में हस्तक्षेप करने दादा लोग(माओवादी) पहुंच गए तो उनका दमन किया जा रहा है। लेकिन उनकी बात समझने के लिए न तो व्यावसायिक मीडिया के लोग तैयार थे, न ही वे लोग जो माओवाद से सहानुभूति रखते हैं। एक तरफ पत्रकार पूछ रहे थे कि आखिर डील क्या हुई और उससे रमन सिंह क्यों मुकर गए तो दूसरी तरफ यह पूछा जा रहा था कि क्या इससे आपरेशन ग्रीन हंट रुक गया और 13 दिनों में जो युद्धविराम कायम हुआ उसके कितने समय तक चलने की उम्मीद है। कुछ मिलाकर हार जीत और लेनदेन का हिसाब किताब मांगा जा रहा था। किसी ने पूछा कि आपने आपरेशन ग्रीन हंट देखा या नहीं, तो किसी ने पूछा कि आप सलवा जुड़ूम से मिले क्या? इन हास्यास्पद और विडंबनापूर्ण सवालों के बीच यह भी टिप्पणियां सुनने को मिलीं कि लगता है कि अगवा करना ही एक कारगर तरीका है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
डा राममनोहर लोहिया ने कहा था कि बीसवीं सदी की दो बड़ी उपलब्धियां हैं। एक एटम बम और दूसरा महात्मा गांधी। सदी के अंत तक दोनों में से एक ही बचेगा। लेकिन विडंबना देखिए कि इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत जाने के बाद भी दुनिया में दोनों बचे हुए हैं। यही इस दौर का सबसे बड़ा पाखंड है। हम एटम बम भी बनाते हैं और समय समय पर महात्मा गांधी को भी याद कर लेते हैं। इसके लिए वह समय उतना दोषी नहीं है जब इन दो विचारों का आविष्कार हो रहा था। इसके लिए वह समय ज्यादा दोषी है जब मानव सभ्यता के लिए दोनों की अहमियत शीशे की तरह साफ हो चुकी है। महात्मा गांधी और उनका अहिंसा का दर्शन उस समय पैदा हुआ था जब मानव सभ्यता विश्व युद्ध के रूप में अपने जीवन से सबसे विनाशकारी दौर से गुजर रही थी। गांधी ने दोनों विश्वयुद्धों को देखने के बाद अपने अहिंसा के सिद्धांत में दृढ़ता प्रकट की थी। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा की थी और दूसरे विश्वयुद्ध में अपने देश की आजादी के लिए उनके खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ दिया था। संयोग से वे उस समय जीवित थे अमेरिका ने जापान से हिरोशिमा और नागासाकी नाम के शहरों पर पहली बार परमाणु बम का हमला किया था। अगस्त 1945 में हुए उस हमले के बाद महात्मा गांधी की टिप्पणी थी-----जब मैंने पहली बार सुना एटम बम ने हिरोशिमा को मिटा दिया है तो मेरे शरीर में कोई हरकत ही नहीं हुई। उल्टे मैंने खुद से कहा—अब अगर दुनिया अहिंसा को नहीं अपनाती तो मानव जाति की खुदकुशी सुनिश्चित है।
Saturday, March 3, 2012
भ्रष्टाचार के कृपानिधान
बंबई हाईकोर्ट के आदेश के बाद छापे और गिरफ्तारी का आसन्न संकट ङोल रहे कृपाशंकर सिंह एक व्यक्ति नहीं परिघटना हैं। उनका जाल मुंबई से महाराष्ट्र और झारखंड से यूपी के जाैनपुर तक फैला हुआ है। इसमें स्याह और सफेद राजनीति के खिलाड़ियों से लेकर कालेधन के तमाम कारोबारी शामिल हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार के तहत जो बेहिसाब संपत्तियां बनाई हैं उन पर पड़ने वाले छापे एक सीमा से आगे नहीं जा सकते। क्योंकि उससे आगे जाने का मतलब है भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे और कांग्रेसी नेता विलास राव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे सभी पर गाज गिरना। कृपाशंकर सिंह भ्रष्टाचार की उसी लीक पर चल रहे हैं जो महाराष्ट्र और देश के अन्य बड़े नेताओं ने बनाई है। सरकारी पदों का इस्तेमाल करते हुए पार्टी और परिवार के लिए धन इकट्ठा करना और फिर इधर से उधर हस्तांतरित करना मौजूदा राजनीति की खास कार्यशैली है। इसमें कालेधन को सफेद करना और सरकारी धन को अपना समझने की सार्वभौमिक प्रवृत्ति पाई जाती है। कृपाशंकर सिंह चूंकि बेहद सामान्य स्थिति से राजनीति में आगे बढ़े थे, इसलिए उन्होंने इस काम को कुछ ज्यादा और तेजी से किया। उन्होंने मुंबई में बीएमडब्ल्यू कारों से लेकर धन और विलासिता का ऐसा कारोबार खड़ा किया कि दिल्ली से आने वाला कोई भी बड़ा नेता उनके सत्कार से असंतुष्ट न हो। पर उनकी दिक्कत यह रही कि एक उत्तर भारतीय (जाैनपुरिया)होने के कारण उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी जगह बनाई। एक मामूली सब्जी विक्रेता से महाराष्ट्र के गृह राज्यमंत्री और मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष का पद हासिल करना कोई आसान काम नहीं था। इसके लिए उन्होंने पहले उत्तर भारतीयों को रिझाया और उनके नेता बने। बाद में मराठियों का भी विश्वास जीता और उनकी मदद से महाराष्ट्र की राजनीति में दोनों पैरों पर खड़े हो गए। वे जितनी कुशलता से भोजपुरी और हिंदी बोलते हैं उतनी ही कुशलता से मराठी भी। लेकिन मराठी और भैया लोगों की खिचड़ी बनाकर जो उन्होंने राजनीति की, उसे असली ताकत मिली दिल्ली दरबार से। दिल्ली दरबार और कांग्रेस हाईकमान में लंबी पहुंच होने के चलते वे असरदार बने और इसी के चलते बाद में राज्य की विलास राव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और पृथ्वीराज चव्हाण जैसे नेताओं की मराठी राजनीति ने उनका पत्ता साफ करना शुरू कर दिया। आरटीआई तो एक बहाना है असली खेल मुंबई कांग्रेस के तीन गुटों की खींचतान से निकला है। एक तरफ मुरली देवड़ा, दूसरी तरफ गुरदास कामथ और तीसरी तरफ कृपाशंकर सिंह का गुट है। लगता है अब दोनों गुट मिलकर कृपाशंकर सिंह को निपटाने में लग गए हैं। मजेदार बात यह है कि दो मराठी गुटों ने मिलकर संजय तिवारी नाम के एक पूरबिया का इस्तेमाल करते हुए यह पूरा खेल रचा है। शायद यह दोनों गुट कृपाशंकर को राजनीतिक तौर पर पछाड़ नहीं पा रहे थे, इसलिए वकीलों के समूह के प्रतिनिधि और आरटीआई कार्यकर्ता संजय तिवारी की मदद ली गई। कृपाशंकर सिंह अनजान रहे और अब उनके खिलाफ उत्तर प्रदेश, झारखंड, मुंबई और दूसरी जगहों से इतने तथ्य इकट्ठा हो गए हैं कि उनकी राजनीति डांवाडोल हो रही है। उनका बेटा नरेंद्र मोहन टूजी घोटाले में फंसा हुआ है। उनके समधी और झारखंड के कांग्रेसी नेता कमलेश सिंह मधुकौड़ा के साथ 4000 करोड़ का भ्रष्टाचार करने के आरोप में जेल में हैं। कृपाशंकर सिंह कहते हैं कि उनका राजनीतिक कैरियर खत्म करने के लिए उन्हें फंसाया गया है। उनका कहना है कि वे कानूनी तौर पर लड़ेंगे और जीतेंगे भी क्योंकि वे अपराधी नहीं हैं। उनके समर्थकों का यह भी कहना है कि जिस संजय तिवारी की जनहित याचिका को हाई कोर्ट ने एफआईआर बताते हुए कार्रवाई करने का आदेश दिया है, वह दरअसल उनसे मुंबई महानगर निगम का टिकट चाहता था ताकि वह किसी को दस लाख में बेच सके। जब उन्होंने उनकी मदद नहीं की तो वह उनके पीछे पड़ गया। पर कृपाशंकर सिंह दूध के धुले होते तो बात यहां तक नहीं पहुंचती। उनका नाम भले शंकर की कृपा होने का दावा करता है लेकिन हकीकत में वे राजनीति और भ्रष्टाचार के अर्धनारीश्वर हैं। भ्रष्टाचार विरोधी इकाई ने अपने छापे में उनकी तमाम संपत्तियां, कई बीएमडब्ल्यू कारें और बैंक खाते वगैरह उजागर किए हैं। सन 2008-2009 के बीच कृपाशंकर सिंह की पत्नी मालती देवी के कई बैंक खातों में 65 करोड़ का लेनदेन हुआ है। वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं। एक घरेलू धार्मिक महिला हैं। पूजा पाठ करती हैं और पति का कारोबार कामयाबी के शिखर पर पहुंच यही ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। उनकी प्रार्थना सुनी भी गई, लेकिन उन्होंने सत और असत की भीतरी आवाज नहीं सुनी, इसलिए आज उनकी प्रार्थना उल्टी पड़ गई है। उनके बेटे नरेंद्र मोहन और बहू अंकिता के समता सहकारी बैंक स्थित खाते में टू जी घोटाले के आरोपी शाहिद बलवा की कंपनी डीबी रियल्टी ने 2008-09 के दौरान 4.5 करोड़ रुपए जमा कराए हैं। पर कृपाशंकर सिंह की धोखाधड़ी के इतने ही मामले नहीं हैं। उन्होंने 2004 और 2009 के विधानसभा चुनावों में अपने दो पैन नंबर दिखाए थे। दोनों के नंबर अलग-अलग हैं और इसका पता राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के एक उम्मीदवार गेनू मोर ने लगाया है। लेकिन उनके झूठ और गोरखधंधे की सीमा यहीं समाप्त नहीं होती। पहले वे अपने को ग्रेजुएट होने का दावा करते थे। बाद में वह सही नहीं निकला। फिर उन्होंने 1966 में हाई स्कूल और 1969 में इंटरमीडिएट करने का दावा किया। लेकिन हाल में संजय तिवारी ने आरटीआई के माध्यम से यह ढूंढ कर निकाला कि वे हायर सेकंडरी इंतहान में फेल हो चुके हैं। कृपाशंकर सिंह फेल हुए हैं या पास यह तो समय ही बताएगा। लेकिन उन्होंने जिस राजनीति की लंबी यात्र तय की है उसमें वे कई बार पास जरूर हुए हैं। सन 2004 और सन 2009 में कांग्रेस पार्टी की जीत में उनका योगदान रहा है। उन्होंने शिवसेना और भाजपा को धूल चटाने में अहम भूमिका निभाई है। आज भी बृहन्न मुंबई नगरपालिका में कांग्रेस को जो सीटें मिली हैं उनमें भी उनकी भू्मिका रही है। पार्टी उनकी राजनीतिक अहमियत को जानती है। हालांकि पहले उन्होंने पूरबिया लोगों के किनारा किया और अब लोग उनसे कर रहे हैं। भ्रष्टाचार में उनके फंसने से हर किसी को खुशी ही होनी चाहिए और उनके कई खास भी खुश हो रहे हैं। लेकिन सवाल यही है कि पार्टी की भीतरी गुटबाजी से चले आरटीआई के इस तीर से घायल कृपाशंकर सिंह निपट भी गए तो क्या हमारी राजनीति और विशेषकर कांग्रेस की राजनीति अपनी सफाई कर पाएगी?
Tuesday, January 24, 2012
जाति और डेरों का लोकतंत्र
Thursday, January 5, 2012
सेनापति पर विवाद ठीक नहीं
नाम में क्या रखा है? रोमियो से कहा गया जूलियट का यह संवाद वहां ठीक है जहां प्रेम का सवाल हो, लेकिन जहां कैरियर और सत्ता का सवाल हो वहां नाम में भी बहुत कुछ रखा है और जन्मतिथि में तो उससे भी ज्यादा है। रायसीना की पहाड़ियों पर स्थित भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान का साउथ ब्लाक इन दिनों जन्मतिथि के एक महत्वपूर्ण विवाद में घिर गया है। और यह विवाद किसी सामान्य व्यक्ति का नहीं भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वीके सिंह का है। जनरल वीके सिंह कह रहे हैं कि उनका जन्म 10 मई 1951 को हुआ और रक्षा मंत्रलय के रिकार्ड कह रहे हैं कि वह 10 मई 1950 को हुआ। रक्षा मंत्री एके एंटनी उनके दावे को कम से कम दो बार खारिज कर चुके हैं और अब जबकि मंत्रलय के रिकार्ड के अनुसार इस साल मई में उनके रिटायर होने का समय आ रहा है तो विवाद और तेज उठ गया है।
उसने रक्षा मंत्रलय और सेना के बीच ही नहीं सेना के दो विभागों के बीच एक तरह की खींचतान की स्थिति पैदा कर रखी है। विवाद इतना गंभीर है कि एक दिन पहले इस मसले पर प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने रक्षामंत्री एके एंटनी से आधे घंटे बात की। इस बीच पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने रक्षामंत्री को पत्र लिखकर इस मामले को वीके सिंह के पक्ष में निपटाने की अपील की है। उनका कहना है कि यह सारा विवाद पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर का खड़ा किया हुआ है, वे जनरल विक्रम सिंह को सेना प्रमुख बनवाना चाहते थे इसलिए उन्होंने सेना के दो विभागों के रिकार्ड में उनकी दो तरह की जन्मतिथि लिखवाई। वेतन, भत्ते से संबंधित एडजन्टैंट जनरल ब्रांच में वीके सिंह का जन्मवर्ष 1951 और पोस्टिंग प्रमोशन देखने वाली शाखा मिलिट्री सेक्रेटरी ब्रांच में 1950 लिखा हुआ है। सूचना के अधिकार के माध्यम से यह विवाद उसी तरह सामने आया है जिस तरह कुछ महीने पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और गृहमंत्री पी चिदंबरम का विवाद सामने आया था। और जनरल वीके सिंह के खंडन के बावजूद इस मामले के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने और विवाद के सार्वजनिक होने की आशंका समाप्त नहीं हुई है। वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर एक जनहित याचिका दायर हो चुकी है कि उनकी जन्मतिथि निर्धारित की जाए।
अगर सरकार की तरफ से वीके सिंह के पक्ष में विवाद का सम्यक समाधान नहीं हुआ तो उनके सामने सश बल पंचाट या सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला है। लेकिन भारतीय सेना के मौजूदा प्रमुख का अपनी सेवा शर्तो के विवाद को न्यायालय में ले जाने का मतलब है सरकार की वैधानिकता को चुनौती देना। इस चुनौती से न सिर्फ सेना के मनोबल पर असर पड़ता है बल्कि उस सरकार का इकबाल और भी कमजोर होता है जो पहले से तमाम तरह के घोटालों में फंस कर लड़खड़ा रही है। संभवत: सेना का ख्याल रखते हुए ही अमरिंदर सिंह ने रक्षामंत्री को लिखे पत्र में देश के 11.3 लाख सैनिकों के मनोबल का सवाल उठाया है। वे जनरल वीके सिंह से निजी तौर पर भी जुड़े हो सकते हैं और अपने विधानसभा चुनाव में उतर चुके पंजाब के लाखों सैनिक परिवारों का भी ख्याल कर रहे हो सकते हैं।
वजह जो भी हो पर रक्षा मंत्रलय और सेना के बीच इस तरह की शीर्ष स्तर की खींचतान न तो देश के लोकतंत्र के लिए शुभ है न ही देश की सुरक्षा के लिए। भारतीय लोकतंत्र इस मायने में निश्चिंत रह सकता है कि वहां नागरिक प्रशासन ही श्रेष्ठ है और सेना उसी के तहत पूरे विश्वास से काम करती है। हमारे यहां पड़ोसी देशों की तरह सेना प्रमुख न तो नागरिक प्रशासन को चुनौती देते हैं न ही यहां पाकिस्तान की तरह मेमोगेट जैसा कोई खतरा है। इसी भावना को व्यक्त करते हुए जनरल वीके सिंह ने कहा है कि हमारा कार्यकाल तो सरकार ही तय करेगी और हमारा कोर्ट जाने का कोई इरादा नहीं है। इस बयान में उन्होंने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। लेकिन इसी के साथ उनका यह कहना कि हमारी जन्मतिथि को सरकार को नहीं बदल सकती, उनके दुखी मन को व्यक्त करता है। अब यह देखना लोकतांत्रिक सरकार और उसकी नौकरशाही का काम है कि जनरल वीके सिंह के साथ कोई अन्याय न हो।