डिंपल की जीत के मायने
अरुण कुमार त्रिपाठी
मुख्यमंत्री अखिलेश
यादव की पत्नी और सपा उम्मीदवार डिंपल यादव ने जिस तरह से कन्नौज लोकसभा सीट से
ऐतिहासिक जीत दर्ज की है उसके तीन संदेश हैं। जाहिर है यह परिवारवाद की प्रचंड
विजय है और उसके आगे देश और प्रदेश के के सारे प्रमुख राजनीतिक दल नतमस्तक हैं।
दूसरा संदेश है कि फिलहाल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का डंका बज रहा है और
अब उसके आगे भाजपा और कांग्रेस क्या उसकी प्रमुख प्रतिव्दंव्दी बसपा भी आगे आकर
अपनी भद नहीं कराना चाहती। इस जीत का एक तीसरा संदेश भी है कि मुलायम सिंह और उनके
परिवार के प्रति उत्तर प्रदेश में एक व्यापक सदाशयता उभरी है और क्या वे उसका
उपयोग किसी बड़े मकसद के लिए कर पाएंगे ? यह
विडंबना है कि जिस प्रदेश में समाजवादियों ने नेहरू के परिवारवाद के खिलाफ
राजनीतिक आंदोलन छेड़ा और जिसकी विरासत पर मुलायम सिंह दावा कर रहे हैं वे स्वयं
आज वहीं पहुंच गए हैं। जब अखिलेश यादव पहली बार राजनीति में आए और कन्नौज से परचा
भर निकले तो पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। उनसे पूछा कि आप की पार्टी कांग्रेस के
परिवारवाद का विरोध करती है लेकिन आप का राजनीति में आना क्या परिवारवाद नहीं है ? उन्हें शायद जबाव देर से सूझता और वह उतना सटीक
नहीं भी हो सकता था लेकिन साथ खड़े जनेश्वर मिश्र ने अपनी सरल और संप्रेषणीय शैली
में जवाब दिया कि वह सत्ता का परिवारवाद है और यह संघर्ष का। हालांकि वह कहने की
बात थी और अब मुलायम सिंह का परिवारवाद भी सत्ता का ही हो गया है। पर यह विचित्र
स्थिति है कि जब प्रदेश गांधी नेहरू के राष्ट्रीय परिवार से विमुख हो रहा है तब वह
एक प्रादेशिक परिवार को अपना रहा है। हाल में विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता
ने रायबरेली और अमेठी में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के डेरा
डालने के बावजूद उन विशिष्ट इलाकों की सीटों पर उनकी कांग्रेस पार्टी के
उम्मीदवारों को जिस बुरी तरह से हराया है वह इसी का प्रमाण है। उस पृष्ठभूमि में
डिंपल यादव की ऐतिहासिक जीत का विशेष महत्व बन जाता है। कहने के लिए आज मुलायम के
परिवार की प्रदेश में वही स्थिति हो गई है जो कभी नेहरू के परिवार की देश के स्तर
पर थी। मुलायम के परिवार की तुलना तमिलनाडु के करुणानिधि परिवार और पंजाब के
प्रकाश सिंह बादल परिवार से की जा सकती है। लेकिन यहां वे ज्यादा सफल कहे जा सकते
हैं क्योंकि उन्होंने पारिवारिक प्रतिस्पर्धा को संभाल कर अखिलेश को युवा अवस्था में
ही यूपी जैसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि करुणानिधि के साथ उसकी
संभावना क्षीण लगती है। वहां स्तालिन और अझगिरी में ज्यादा घमासान है और करुणानिधि
ज्यादा बूढ़े भी हो चुके हैं। मुलायम वाली संभावना बादल के साथ है लेकिन अभी वह
सपना साकार नहीं हुआ है। हालांकि इस कामयाबी में अखिलेश यादव का पना योगदान भी कम
नहीं है।
इस चुनाव का दूसरा
अर्थ प्रदेश के बाकी दलों की स्थिति पर एक टिप्पणी है। कांग्रेस पार्टी से तो
राष्ट्रपति चुनाव के कारण सपा का तालमेल बन रहा है और ममता बनर्जी के दगा देने पर
उसके दीर्घकालिक संकटमोचन बनने के आसार हैं। इसलिए कांग्रेस का उम्मीदवार न खड़ा
करना समझ में आता है। इसी तरह बसपा ने 2009 में घोषणा कर रखी है कि वह कोई उपचुनाव
नहीं लड़ेगी। इसलिए लगभग हारने वाले चुनाव में उतर कर वह अपनी प्रतिष्ठा और
कार्यकर्ताओं के मनोबल को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी। लेकिन आंतरिक कलह में उलझी
भारतीय जनता पार्टी को आखिर क्या हो गया ?
ब्राह्मण बहुल कन्नौज क्षेत्र में वह लड़ते हुए भी क्यों नहीं दिखना चाहती थी ? क्यों उसके उम्मीदवार डेढ़ घंटे पहले परचा भरने
लखनऊ से कन्नौज के लिए रवाना होते हैं जबकि वह रास्ता तीन घंटे से कम का नहीं है। क्या वह अहंकार के शिखर पर बैठे बड़े नेताओं का एक समूह बन गई है या
उसके नेता मायावती और मुलायम सिंह से इतने उपकृत हैं कि वे उनकी राह में कोई रोड़ा
अटकाना नहीं चाहते ? क्या यह जनसंघ और
समाजवादियों की मित्रता की पुरानी विरासत है या भाजपा की हाराकीरी की इच्छा ? क्या ऐसी पार्टी को गुजरात से आकर नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में
खड़ा कर पाएंगे ?
लेकिन इस चुनाव का
संदेश इन बातों से बड़ा है और वह है मुलायम सिंह यादव को मिली व्यापक सद्भावना और उससे
बनने वाले अवसर का। यह महज संयोग हो सकता है कि इस चुनाव में उनकी बहू जीत कर आई
है लेकिन इस जीत की लक्ष्मी से वे स्त्रियों के सबलीकरण की
राजनीति का श्रीगणेश भी कर सकते हैं। यह सभी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव, शरद
और लालू प्रसाद जब महिला आरक्षण विधेयक का कड़ा विरोध करते हैं तो उनके मन में
उससे अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति के कमजोर पड़ने और उन सीटों पर सवर्ण महिलाओं के
हावी होने का खौफ रहता है। लेकिन आज वे ऐसी राजनीतिक स्थिति में हैं कि उन्हें यह
खौफ मिटा देना चाहिए। वे इस जीत को संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का
प्रतिनिधित्व बढ़ाने के एक ऐतिहासिक सुअवसर के तौर पर ले सकते हैं। अगर वे 33
प्रतिशत आरक्षण का न भी समर्थन करें तो भी उसे पार्टियों में टिकट देने के रूप में
तो शुरू ही कर सकते हैं। उन्हें आगे बढ़कर उस मामले पर कोई पहल करनी चाहिए। डिंपल
की इस जीत से शरद यादव का वह भय भी घट सकता है कि संसद में परकटी महिलाओं की भरमार
हो जाएगी। उन्हें याद रखना चाहिए कि डा राममनोहर लोहिया की सप्तक्रांतियों में
पहला कार्यक्रम नर नारी समता का ही था। आज उन्हें भी इस सवाल पर सोचना चाहिए कि
दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए सवर्णों को खाद बनने की सीख देने वाले डा
लोहिया आखिर क्यों सबसे पहले पहले नर-नारी समता को ही महत्व देते थे। लोहिया के इस
आह्वान को मुलायम सिंह को जरूर सुनना चाहिए। उनके अलावा इसे अखिलेश और डिंपल यादव
को भी सुनना चाहिए। अगर वे इस अवसर पर इस संदेश को नहीं सुन पाए तो भारत रत्न
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की 1952 में इलाहाबाद में हासिल की गई जीत के टक्कर
की यह विजय नेहरू के परिवार की तरह एक प्रादेशिक परिवारवाद की जीत बनकर रह जाएगी
और पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए महज जश्न का मौका बन कर विस्मृत हो
जाएगी।