दिल्ली की केंद्र सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार की लड़ाई दिनोंदिन
तीखी और छिछली होती जा रही है। जाहिर सी बात है कि इसमें अभी तो आप पार्टी के नेता
और मुख्यमंत्री केजरीवाल पिटते दिख रहे हैं लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होने वाला है।
समय- समय पर कानूनी और संवैधानिक दिखने वाली यह लड़ाई निश्चित तौर पर राजनीतिक है
और इससे भविष्य में देश के लिए नई राजनीति निकलने की संभावना समाप्त नहीं हुई है।
दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री जितेंद्र तोमर की बीएससी और
एलएलबी की डिग्री अगर फर्जी है तो उनके साथ किसी को सहानुभूति नहीं होनी चाहिए और
उन पर कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए। लेकिन इस मामले में दिल्ली पुलिस का रवैया
बदले का नहीं है और उसने अपनी कार्रवाई में एक कानून पालन करने वाली प्रोफेशनल
संस्था की तटस्थता और निष्पक्षता दिखाई है ऐसा नहीं लगता। केंद्रीय गृहमंत्री
राजनाथ सिंह का यह दावा कि पुलिस सबूतों के आधार पर कार्रवाई कर रही है इतना तक तो
सही लगता है, लेकिन उसे विशेष तौर पर तोमर के खिलाफ सबूत जुटाने और फिर उन्हें
रिमांड पर लेकर जलील करने का फैसला महज पुलिस का नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो
केंद्र की एनडीए सरकार में कम से कम दो- तीन मंत्रियों की डिग्रियों के फर्जी होने
और एक के बलात्कार में शामिल होने की निष्पक्षता और कड़ाई से जांच होती और उन्हें
भी इसी तरह गिरफ्तार करके रिमांड पर उनके शहरों में ले जाया जाता और फर्जी
डिग्रियों के रैकेट का पता लगाया जाता। क्योंकि अगर अवध विश्वविद्यालय और भागलपुर
विश्वविद्यालय में फर्जी डिग्रियों का रैकेट है और दिल्ली से हजार, डेढ़ हजार
किलोमीटर की इस दूरी तक दिल्ली पुलिस की सक्रियता है तो फिर दिल्ली से ढाई घंटे की
दूरी पर स्थित आगरा जाकर तहकीकात करने में उसे क्या दिक्कत आ रही थी। वह दिक्कत
राजनीतिक है और उसी के आधार पर दिल्ली की पुलिस अपनी प्राथमिकताएं तय कर रही है।
चाहे कानून मंत्री जितेंद्र तोमर की बिना नोटिस के की जाने वाली
गिरफ्तारी हो या एंटी करप्शन ब्यूरो के प्रमुख के तौर पर उपराज्यपाल की तरफ से
ज्वाइंट कमिश्नर एमके मीणा और मुख्यमंत्री की तरफ से एसएस यादव की समांतर नियुक्ति
का सवाल हो या धर्मपाल को उपराज्यपाल की तरफ से और राजेंद्र कुमार को मुख्यमंत्री
की तरफ से गृह सचिव बनाए जाने का मामला हो यह सब सत्ता संघर्ष है जो केंद्र सरकार
के इशारे के बिना नहीं चल सकता। इस संघर्ष में निजी तौर पर, व्यवस्थागत तौर पर और
राजनीतिक तौर पर अगर किसी की सबसे ज्यादा दिलचस्पी हो सकती है तो वह मोदी सरकार और
केजरीवाल सरकार की। यह सब नसीब जंग अपनी मर्जी और मजे के लिए कर रहे हैं ऐसा मानना
गलत होगा।
जाहिर है इस मामले में संविधान में दिए गए केंद्र राज्य संबंधों की
नजाकत और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली कार्यव्यवहार नियमावली 1993 का अपना
योगदान है। उसकी उलझनें दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्वों और सरकारों के आसपास अस्तित्व में आने से ज्यादा खुलकर
सामने आ गई हैं जो बड़ी दिल्ली में मनमोहन सिंह और छोटी दिल्ली में शीला दीक्षित
के एक ही पार्टी से संबंधित होने के कारण दबी हुई थीं। दिक्कत यह है कि इस मामले
में न तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कोई समाधान दे पा रहे हैं और न ही
राष्ट्रपति। आखिरकार यह कार्यपालिका के दो महत्त्वाकांक्षी नेताओं की जंग बनकर रह
गई है जिसमें दिल्ली का प्रशासन त्रिशंकु की तरह आसमान में अटक गया है। इस लड़ाई
में केजरीवाल यह भूल गए हैं कि उनकी सारी ताकत नैतिक थी, जिसे दिल्ली की जनता ने
अपने प्रचंड जनादेश से राजनीतिक शक्ति प्रदान की थी। पर उसकी सारी प्रतिष्ठा नैतिक
बने रहने में ही थी क्योंकि दिल्ली राज्य की संरचना देश के अन्य राज्यों जैसी है
नहीं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण केजरीवाल भले अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व बन
गए हों लेकिन उनकी सरकार की हैसियत नगर निगम से भी कमजोर है। केजरीवाल को यह भी
सोचना चाहिए था कि जिस जनता ने उन्हें 67 सीटों का बहुमत दिया उसी ने लोकसभा में
मोदी को राजधानी की सात सीटों का तोहफा भी दिया। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार मिटाने
और देश के विकास का मोदी का दावा जनता को ज्यादा ग्राह्य हुआ है तभी पच्चीस साल
बाद देश में पहली बार किसी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ है। लेकिन केजरीवाल अपने
जनादेश के मद में उसी तरह नैतिकता और लोकतंत्र भूल गए जिस तरह मोदी लोकसभा में
अपने विजय के मद में हर्षवर्धन और पार्टी के दूसरे लोगों को भूलकर किरण बेदी को
मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना बैठे।
केजरीवाल की सत्ता छोटी है और उस लिहाज से उनका मद बड़ा था। उन्होंने
प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और योगेंद्र यादव के साथ जिस तरह की बदसलूकी करके उन्हें
निष्कासित किया, उससे लग गया कि उनकी
राजनीतिक शैली इस्तेमाल करने और फेंकने की है। वे यह भूल गए कि उन्होंने जिन लोगों
को अपशब्द कह कर पार्टी से निष्कासित किया वे उनकी पार्टी ही नहीं लंबे समय से देश
के कई आंदोलनों और विचारधाराओं के स्तंभ और ध्वजवाहक थे। वे झाड़पोछकर रालेगढ़
सिद्धी से लाए गए अन्ना हजारे जैसे कम पढ़े लिखे और बूढे समाजसेवी नहीं थे जिनसे
मुक्ति पा कर केजरीवाल को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। आज ऐसा कहने वालों की कमी
नहीं है कि केजरीवाल ने अगर प्रशांत भूषण का कहा मानकर दागी लोगों को टिकट न दिया
होता और टिकट दिया तो दिया बाद में मंत्री न बनाया होता तो आज उनकी ऐसी दशा नहीं
होती। क्योंकि अपने को श्रीमान दुग्धधवल बताने वाले केजरीवाल की पलटन में दागी और
अपराधियों का सिलसिला यहीं नहीं खत्म होता। वह दिल्ली कैंट के विधायक सुरिंदर सिंह
की बीए की डिग्री तक भी जाता है। मामले और भी हैं और जब केंद्र की दिल्ली सरकार
पीछे ही पड़ी है तो दिल्ली पुलिस उसे ढूंढ ही निकालेगी। शायद वह केजरीवाल सरकार को
कलंकित करके कमजोर करने का धारावाहिक चलाना चाहती है, इसलिए सारे मामले एक साथ
नहीं कर रही है।
लेकिन दिल्ली की केंद्र सरकार की नीति में केजरीवाल का दीर्घकालिक
फायदा भी है। एक तरफ से अपने को प्रताड़ित बनाकर दिल्ली की जनता और देश की
सहानूभूति बटारते रह सकते हैं और धीरे-धीरे पूर्ण राज्य के मुद्दे को गरमा सकते
हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि केजरीवाल इस केंद्र बनाम राज्य के राजनीतिक संघर्ष
का मुद्दा बनाते हुए 2001 में पेश सरकारिया आयोग की सिफारिशों की बातों को उठा
सकते हैं। मोदी सरकार भले वित्तीय संघवाद का हवाला दे लेकिन हकीकत में उसका रवैया
तानाशाहीपूर्ण है और आगे और होने वाला है। ऐसे में केजरीवाल को अस्सी के दशक की उस
राजनीति के पन्ने पलटने चाहिए जब इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध विभिन्न
राज्यों के मुख्यमंत्री एकजुट होने लगे थे और उनकी वह एकता राजीव गांधी के लिए
बड़ी चुनौती बनकर सामने आई। एनटीराम राव, देवीलाल , प्रकाश सिंह बादल, फारूक
अब्दुल्ला, रामकृष्ण हेगड़े, ज्योति बसु, बीजू पटनायक सभी ने मिलकर राज्यों की
स्वायत्तता के बहाने केंद्र के विरुद्ध जो राष्ट्रीय मोर्चा बनाया वह कांग्रेस को
सत्ता से हटाने में कामयाब रहा। आज केजरीवाल उसी ढर्रे पर चल रहे हैं। वे नीतीश
कुमार से अफसरों की मदद ले रहे हैं। देर सबेर नीतीश कुमार उनकी भी मदद लेंगे।
केजरीवाल को इस तरह का रिश्ता ममता बनर्जी और राहुल गांधी से भी कायम करना होगा।
लेकिन राज्यों की स्वायत्तता और उनके विशेष दर्जे का सवाल दबने वाला नहीं है। यह
सवाल बिहार के साथ भी उठेगा और पश्चिम बंगाल के साथ भी। फिलहाल पूर्वोत्तर राज्यों
के मुख्यंमंत्री त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के नेतृत्व में प्रधानमंत्री
से मिलने के लिए 45 दिन से समय मांग रहे हैं लेकिन उन्हें अभी तक नहीं मिला है।
असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इस पर विशेष नाराजगी जताई है। केजरीवाल की
समस्याओं का समाधान दिल्ली में ही नहीं है। उसके तार दूर तक जाते हैं। लेकिन वह
तभी हो सकता है जब केजरीवाल इस्तेमाल करके फेंकना छोड़ें और नैतिक अनैतिक का फर्क
करना समझें । वे अपने आसपास वैसे लोगों का जमावड़ा न इकट्ठा करें जिनका मकसद महज
निहित स्वार्थ और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा हो। अगर वे ऐसा करते हैं तो एक बार फिर
दिल्ली बनाम दिल्ली की जंग में बड़ी जीत की ओर बढ़ सकते हैं। वरना उनका रोज वही
अपमान होगा जो हो रहा है।